Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
16 Feb 2017 · 17 min read

हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य का सत्य +रमेशराज

हिन्दी में ग़ज़लकारों की एक पूरी की पूरी जमात इस बात का पूरे जोर-शोर के साथ प्रचार कर रही है कि अब ग़ज़ल किसी सुहागरात की न तो चूडि़यों की खन-खन है और न किसी प्रेमिका का आलिंगन है। न एकांत में चोरी-चोरी छुपकर लिया गया चुम्बन है। इसे न अब इश्क का बुखार है, न हुस्न से दरकार है। गुलो-बुलबुल, शमा-परवाने, साकी-पैमाने के कथन अब पुराने जमाने की बातें हो गयी हैं।
ग़ज़ल के बारे में डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ कहते हैं-‘‘जर्जर ग़ज़ल ने अपना कायाकल्प करके और रंगभूमि की झंकार को विस्मरण के शून्य में सुलाकर आजकल आम आदमी की समस्याओं तो शोषित-दलित वर्ग की दुरवस्थाओं के चित्रण एवं उनके विवरण की युक्तियाँ बतलाने का दायित्व वहन कर रखा है। [ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 18]
आइए डॉ. अनंत के हिन्दी ग़ज़ल के बारे में कहे गये इस तथ्य के सत्य को परखने के लिये हिन्दी ग़ज़ल के विद्वान ग़ज़लकार डॉ. महेश्वर तिवारी जी की ग़ज़ल से शुरुआत करें। आपने तेवरीकारों को लम्बे समय तक गरियाया है और यह बताया है कि तेवरी ग़ज़ल की भौंड़ी नकल है। ऐसे साहित्य के सुधी पंडित की एक ग़ज़ल के दो शे’र देखिए-
हरहराती हुई नदी जैसे, आप आये खुली हँसी जैसे।
जि़न्दगी उस नज़र से देखें हम, मेमना देखता छुरी जैसे।
-प्रसंगवश, फर. 94, पृ. 80
डॉ. महेश्वर तिवारी की उक्त पन्क्तियों- “हरहराती हुई नदी जैसे, आप आये खुली हँसी जैसे। जि़न्दगी उस नज़र से देखें हम, मेमना देखता छुरी जैसे।” [प्रसंगवश, फर. 94, पृ. 80] अर्थात ग़ज़ल के इन दो शे’रो में सामाजिक चेतना और दायित्व-बोध की गति क्या है? मतला शे’र में यदि ‘खुली हँसी’, ‘हरहराती नदी’ जैसी सौगात लेकर आयी प्रेमिका को देखकर चित्त प्रसन्न है तो दूसरे शे’र में इसी प्रसन्नता के साथ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बात करते हुए कवि मानो प्रेमिका को बता रहा है कि जि़न्दगी के प्रति हमारी दृष्टि इस तरह की होनी चाहिए जैसे मैमना छुरी को देखता है। मैमने पर तनी हुई छुरी के यथार्थ का प्रेमिका को बाँहों में भरकर किया गया यह अवलोकन यदि हिन्दी ग़ज़ल का जुझारूपन है तो यहां सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह एक वैचारिक खस्सीपन है।
हिन्दी ग़ज़ल के एक अन्य हस्ताक्षर डा. उर्मिलेश फरमाते हैं-‘‘हिन्दी ग़ज़ल अपने सहज, निष्छल, जीवंत और परिचित स्वरूप के जरिए आज के मनुष्य के दुःखों, संघर्षों और संवेगों से हमारा नितांत सीधा और अंतरंग साक्षात्कार कराती है। [ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.11]
डा. उर्मिलेश के उक्त कथन की मार्मिकता को आइए उनकी ग़ज़ल की ही कहन से परखें और जानें कि वे किसके लिए और क्यों ग़ज़ल कह रहे हैं। उनकी आँखों के आँसू किस यथार्थबोध के बीच बह रहे हैं। उनकी एक ग़ज़ल के दो शे’र प्रस्तुत हैं-
आयी है उनकी याद, ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं
कितने दिनों के बाद ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं।
हालात के डर से या हवालात के डर से
चुप हैं मेरे उस्ताद, ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं।
डा. उर्मिलेश की एक ही ग़ज़ल के उक्त दो शे’रों की कहन में हालात या हवालात का डर, ग़ज़ल के उस्तादों को तो ग़ज़ल कहने पर चुप कर रहा है, लेकिन ग़ज़लकार के रूप में डा. उर्मिलेश के मन में प्रेमिका से मधुर मिलन के पलों के स्मरण का जादू उतर रहा है। ग़ज़लकार ग़ज़ल कह रहा है, भावना में बह रहा है। भले ही हालात और हवालात से समझौते या पलायन का यह समीकरण अपनी प्रेमिका की यादों की गोद में बैठकर हिन्दी ग़ज़ल को सहज, निष्छल और जीवंत बनाने का सुकर्म हो, फिर भी ऐसे यथार्थ-बोध के शोध का सार यही निकलेगा कि हिन्दी ग़ज़ल प्रेयसि की स्मृतियों में डूबे हुए कवि के उन आँसुओं की अभिव्यक्ति है, जिन्हें वह सामाजिक सरोकारों के रूमालों से पौंछकर प्रगतिशील होना चाहता है।
‘ग़ज़ल से ग़ज़ल तक’ नामक पुस्तक के पृ. 106 पर अपनी ग़ज़ल में ‘कथा’ की तुक ‘व्यथा’ से मिलाने के बाद ‘गुँथा’ को भी काफिये के रूप में लाकर और इस ग़ज़ल के काफियों को सहज बताकर भले ही वर्षासिंह ने अबोधपन का परिचय दिया हो, किन्तु ग़ज़ल के कथ्य को लेकर वे भी इसी सत्य को उजागर करती हैं कि-‘‘जीवन की तमाम विसंगतियों, त्रासदियों और संघर्षों को बड़ी आत्मीयता और पैनेपन से उकेरने वाली ग़ज़ल विधा वर्तमान समय में अपने पुरातन ‘हुस्न और ईश्क की शायरी’ को अर्थात्मकता देने वाले परम्परागत स्वरूप को त्यागकर, पूरी तरह से प्रगतिशीलता को अभिव्यक्ति देने में सक्षम होकर उभरी है।” [ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.13]
वर्षा सिंह की उक्त ग़ज़ल संग्रह में पृ. 106 पर प्रकाशित ग़ज़ल में भले ही संघर्षों को उकेरने का पैनापन न हो, किन्तु उनके हिन्दी ग़ज़ल के बारे में दिये उपरोक्त बयान के आलोक में यदि हम प्रसिद्ध ग़ज़लकार चांद शेरी के ग़ज़ल कहने के अन्दाज को परखें तो उन्हें भी प्रेम का बुखार है, जिसका एक सामाजिक सरोकार है, जो ग़ज़लकार को प्रगतिशील बनाये रखने के लिये बेहद जरूरी है। उनकी ग़ज़ल के दो शे’र प्रस्तुत हैं-
कैसे कह दूँ कि वो कामरानों में है, इश्क मेरा अभी इम्तिहानों में है।
कट गये जंग में हाथ उनके मगर, हौसला फिर भी उनका कमानों में है।
{तुलसी प्रभ, सित. 2000 पृ.77}
चांद शेरी के उक्त शे’रों पर गौर करें तो ग़ज़लकार इश्क की परीक्षा की गलियों में हाथ-पैर पटकते-पटकते उन्हीं क्षणों में यकायक युद्ध में कटे हुए हाथों वाले साहसी आदमियों के प्रति करुणा का रस घोलने लगता है। इश्क की परीक्षा की गलियों में हाथ-पैर पटकते-पटकते, घनी रति के बीच उन्नति की भाषा बोलने लगता है। शायद इसी तरह हिन्दी ग़ज़ल बनती है, जो चुम्बन की तरह मीठी है पर चाकू-सी तनती है।
इश्क और त्रासदियों के तल्ख अनुभवों को एक साथ जीने का प्रयास चांद शेरी की उक्त हिन्दी ग़ज़ल में मौजूद है। इस बात को हम ऐसे भी सोच सकते है कि हिन्दी ग़ज़लकार के पास एक ऐसा इश्क का अघपका अमरूद है जिसका इस्तेमाल वह असंगति, विसंगति, अनाचार या व्यभिचार के विरुद्ध चाकू की तरह करना चाहता है।
अपने हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ‘सीप में समन्दर’ के पृ. 15 पर हिन्दी ग़ज़ल के महायोद्धा डा. रामसनेही लाल ‘यायावर’ घोषणा करते हैं कि-‘‘मेरी ये ग़ज़लें अव्यवस्था के जिम्मेदार, व्यवस्था के ठेकेदारों के विरुद्ध कलमबद्ध बयान हैं। ये अपने समय के प्रश्नों को हल करने का दावा नहीं करतीं, किन्तु उन्हें ललकारने का साहस जरूर दिखाती है।’’
आइये-यायावरजी की एक ग़ज़ल के माध्यम से इस कथन के रहस्य को जानें और पहचानें कि उनके वर्तमान गलीज व्यवस्था के विरुद्ध कमलबद्ध बयानों में इस व्यवस्था के ठेकेदारों को ललकारने, उन्हें फटकारने, दुत्कारने का उनमें साहस कितना है? उनकी एक ग़ज़ल के तीन शे’र बानगी के तौर पर प्रस्तुत हैं-
यह असभ्य यह वन्य जि़न्दगी, कितनी हुई जघन्य जि़न्दगी।
हिंसा, घृणा, घोर बर्बरता, हमें चाहिए अन्य जिंदगी।
सरिता-कूल विहँसते हम-तुम, होते-होती धन्य जि़न्दगी। -सीप में समन्दर, पृ.21
असभ्य और वन्य सामाजिक वातावरण का रूप-स्वरूप भले ही जघन्य हो, लेकिन इस असभ्यता-वन्यता की जघन्यता, जिसमें हिंसा, घृणा, घोर बर्बरता है, के विरुद्ध ‘यायावरजी’ के कलमबद्ध बयान हैं। इन बयानों की पोल ग़ज़ल के तीसरे शे’र में खुलती है। ग़ज़लकार त्रासद, तल्ख, असहनीय हालत के अत्याचार या हाहाकार को ललकारने का साहस दिखाने के बजाय सरिता के कूल पर आ जाता है। वहां ईलू-ईलू गाता है, अपनी प्रेमिका के साथ ठहाके लगाता है। इस प्रकार वह अपनी जि़न्दगी को धन्य मानने लगता है।
वन्य और जघन्य वातावरण के बीच ‘धन्य’ होने के जोश का ही नाम यदि आक्रोश है तो निस्संदेह कहा जा सकता है कि हिन्दी ग़ज़ल का यह जनधर्मी चरित्र ऐसा इत्र है जिसकी सुगन्ध के बीच इस व्यवस्था के दुःशासन, कुम्भकरण और मारीच और भी बड़े दुराचारी, व्यभिचारी और बलात्कारी होकर उभरेंगे।
हिन्दी ग़ज़ल के जनधर्मी चरित्र की स्थापना के लिए श्री शिवओम अम्बर का स्वर भी युद्ध के शंखनाद के समान है। उनकी दृष्टि में हिन्दी ग़ज़ल इसलिए महान है, क्योंकि ‘‘आज की हिन्दी ग़ज़ल किसी शोख नाजनीन की ईंगुरी हथेली पर रची हुई मेंहदी की दन्तकथा नहीं है। युवा आक्रोश की मुट्ठी में बँधी बगावत की मशाल है। भाषा के भोज-पत्र पर अंकित विल्पव की अग्नि-ऋचा है।’’
अम्बरजी के उक्त कथन के झूठ के पुलिन्दे की पोल उन्हीं की एक ग़ज़ल कैसे खोलती है, आइए इसका अवलोकन करें-
सिसकियों को दबा रही होगी, वो ग़ज़ल गुनगुना रही होगी।
ओढ़कर के सोहाग इक लड़की, खत पुराने जला रही होगी।
लोग यूँ ही खफा नहीं होते, आपकी भी खता रही होगी।
हादसों से मुझे बचा लायी, वो किसी की दुआ रही होगी।
खैरियत से कटे सफर मेरा, आज माँ निर्जला रही होगी। ;ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.113द्ध
‘अम्बरजी’ की उपरोक्त हिन्दी ग़ज़ल में जनधर्मी चरित्र की प्रगतिशीलता का धारदार ब्लेड कौन-सी विसंगति या असंगति के बढ़े हुए नाखूनों को काटता या छीलता है? ‘खता’ पर ‘खफा’ होना युग की कौन-सी कड़वाहट को उजागर करता है? क्या सिसकियों को दबाकर ग़ज़ल पढ़ने का अंदाज अन्तर्मन से उठती ‘ईलू-ईलू की आवाज नहीं है?
शादी के बाद आशिक के खतों को जला देने के मर्म में ये कैसा जनधर्म है, जिसे समझाने या बताने का औचित्य क्या है? किसी की दुआओं के असर से हादिसों से बचकर घर सकुशल आ जाना ही यदि भाषा के भोज-पत्र पर अंकित विप्लव की अग्निऋचा है तो कहने के लिये क्या बचा है? ग़ज़लकार ने ग़ज़ल के माध्यम से कथित विसंगति का जो भी ब्यूह रचा है, उसके दर्शन तो फिलहाल इस ग़ज़ल में नहीं होते?
सफर पर गये ग़ज़लकार की स्मृतियों में पत्नी या प्रेमिका का सिसकियाँ दबाकर ग़ज़ल पढ़ने, विवाहित लड़की द्वारा आशिक के खत जलाने, किसी की खता पर खफा हो जाने, दुआओं के असर से सकुशल घर वापस आने के स्मरण-बिम्ब की विशेषताएँ क्या हिन्दी ग़ज़ल की हथेली पर रची हुई मेंहदी की दन्तकथाएं नहीं हैं! घोर शृंगार के बाद ग़ज़ल के अन्तिम शे’र के माध्यम से वात्सल्य का पुट देना अगर हिन्दी ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से जोड़ना है तो ऐसी हिन्दी ग़ज़ल के क्रान्ति-दर्शन को दूर से ही प्रणाम।
हिन्दी ग़ज़ल को सामाजिक-त्रासदी से जोड़कर परखने-देखने-जाँचने वाला इस चर्चा के क्रम में पुनः एक और नाम-डा. रोहिताश्व अस्थाना। आपका मानना है कि-
दर्द का इतिहास है हिन्दी ग़ज़ल, एक शाश्वत प्यास है हिन्दी ग़ज़ल।
प्रेम-मदिरा, रूप, साक़ी से सजा, अब नहीं रनिवास है हिन्दी ग़ज़ल।
[प्रसंगवश, फरवरी-94, पृ. 101]
डॉ. अस्थाना की उक्त ग़ज़ल के शे’रों को पढ़कर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि आज की हिन्दी ग़ज़ल भले ही प्रेम-मदिरा-रूप-साकी से सजा रनिवास न हो लेकिन उसके भीतर जो दर्द है-प्यास है, इस दर्द और प्यास का अनुप्रास ग़ज़ल को वही ला पटकता है, जहाँ देह-भोग का रास होता है।
इस बात पर विश्वास करने या कराने के लिये नित्यानंद तुषार की एक ग़ज़ल के दो शे’र देखिए-
तुम्हें खूबसूरत नजर आ रही हैं, ये राहें तबाही के घर जा रही हैं।
अभी तुमको शायद पता भी नहीं है, तुम्हारी अदाएँ सितम ढा रही हैं।
[ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.66] उक्त ग़ज़ल के मतला शेर में ग़ज़लकार महबूबा की अदाओं की अदाकारी को लेकर मदमस्त है-मदहोश है। उजाले का चोला ओढ़े हुए अँधेरे से सावधान करने का यह कैसा तरीका या सलीका है जिसका पतन या स्खलन महबूबा की अदाओं की गुपफाओं में जाकर होता है?
‘‘महेश अनघ ने अपने लेख ‘हिन्दी ग़ज़लः शिल्प का सवाल’ में हिन्दी ग़ज़ल के रूपायन [फार्म] पर बहुत ही गम्भीरता से विचार करते हुए बताया है कि हिन्दी ग़ज़ल एक परिवर्तन का आयाम है-एक नवीनता का सृजन है, उसकी स्वतंत्र मौलिकताएँ होना स्वाभाविक है।’’ [डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, प्रसंगवश, पफरवरी-94 पृ. 39]
हिन्दी ग़ज़ल में गम्भीर परिवर्तन के आयाम क्या हैं, जिनमें नवीनता का सृजन स्वतंत्र, मौलिक और स्वाभाविक तरीके से किस प्रकार होता है, अनघजी की एक ग़ज़ल के दो शे’रों के माध्यम से आइए आकलन करें। शे’र इस प्रकार हैं-
दिल बहुत कमजोर है, कब तक करुण क्रन्दन सुनें
अब चलो, चलकर किसी रसवंत का प्रवचन सुनें।
‘जो नहीं है’ वो तो सारे देशवासी सुन रहे
‘जो यकीनन है’ उसे दीवार या दर्पन सुनें। [तुलसीप्रभा, सित.2000, पृ.51]
‘अनघजी’ [ग़ज़ल के उपरोक्त दो शे’रों के माध्यम से] जैसा ग़ज़लकार समाज के करुण क्रन्दन को सुनकर दिल के कमजोर होने का रोना क्यों रो रहा है? क्या सामाजिक परिवेश की आह-कराह के बीच से रसवंत का प्रवचन सुनने के लिये किये गये दायित्व-बोध् के पलायन से क्रन्दन के स्वर मंद पड़ जाएंगे? समाज को अत्याचार से मुक्त कराने का यह कैसा उपाय है, जो भोग-विलास के अनुप्रास का पर्याय है।
इस व्यवस्था के उस शब्द-जाल, जिसमें श्री महेश अनघ के अनुसार- ‘जो नहीं है’, उसे सारे देशवासी सुन रहे हैं’ और जो यकीन के तौर पर -‘है’, उसे दीवार या दर्पन को सुनाने से किसी ‘नवीनता’ का सृजन होता है होता होगा? हिन्दी ग़ज़ल के शिल्प या कथ्य में मौलिकपन आता है तो आता होगा? जहाँ तक इस घिनौनी व्यवस्था में बदलाव की बात है, तो उक्त दोनों शे’रों का कथन चूंकि कायराना है, अतः सामाजिक क्रदन को और भी बढ़ते जाना है।
सामाजिक क्रन्दन को खत्म करने की छटपटाहट या अकुलाहट डॉ . कुँअर ‘बेचैन’ में भी है। उनके पास भी हिन्दी ग़ज़ल के माध्यम से समाज को अत्याचार और हाहाकार से मुक्त कराने के क्या उपाय हैं, आइए उन्हें भी परखें।
उनकी एक ग़ज़ल के दो शे’र प्रस्तुत हैं-
औरों के ग़म में जरा रो लूँ तो सुबह हो, दामन पै लगे दाग धो लूँ तो सुबह हो।
कुछ दिन से मेरे दिल में नयी चाह जगी है, सर रखके तेरी गोद में सो लूँ तो सुबह हो।
[तुलसी प्रभा, सित.-2000, पृ. 40]
औरों के गम में ‘जरा-सा’ रोने से दामन पै लगे दागों को धोने वाले ग़ज़लकार डॉ. बेचैन के दामन पर दाग किसने और क्यों लगाये हैं, जिन्हें धोने या ये कहें कि गिरती हुई साख को बचाने के लिए ग़ज़लकार को ‘ओरों के गम में ‘जरा-सा शरीक होने’ का नाटक करना पड़ रहा है? नाटक इसलिए बताया जा रहा है क्योंकि ग़ज़लकार को सामाजिक दायित्व-बोध की रस्म निभाने के बाद अगले शे’र में प्रेयसि की गोद में सिर रखकर सोने और उसके बाद सुबह होने की चिन्ता सता रही है। इस ग़ज़ल की भी दिशा और दशा बता रही है कि हिन्दी ग़ज़लकार अभिसार या शृंगार का व्यापार करते हुए दुःखी संसार की त्रासदियों में शरीक होना चाहता है।
श्री विनोद कुमार उइके ‘दीप’ को भी हिन्दी ग़ज़ल की अक़्ल सुधारनी सँवारनी है, अतः वे भी यही राग अलापते हैं कि-‘‘सर्वप्रथम ग़ज़ल का उत्स एवं कथ्य भले ही प्रेम, शृंगार एवं मदिरा रहे हों किन्तु आज ग़ज़ल उन परिधियों को तोड़कर मानव-जीवन के प्रत्येक अंग को स्पर्श करने में समर्थ है। सामाजिक विसंगतियाँ, राजनीतिक दोगलापन और शोषण की पीड़ाएँ आदि की समस्त व्यंजनाएँ आज ग़ज़ल में समाहित हो चुकी है।’’ [तुलसी प्रभा, सित-2000, पृ. 16]
अगर विनोद उइके ‘दीप’ इस बात को जानते और मानते हैं कि आज ग़ज़ल अपने मूल रूप [साकी, प्रेयसि, नर्तकी, नटिनी, व्यभिचारिणी, भोग-विलासिनी, नगरवधू आदि] को त्यागकर अब कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई के स्थान पर रानीलक्ष्मीबाई की भूमिका में है और उसने पाप और अत्याचार से समाज को आजाद कराने की ठान ली है तो ऐसी अभिव्यक्ति को चम्पाबाई के स्थान पर रानी लक्ष्मी बाई कहने में उनका या उन जैसे विद्वानों का हलक क्यों सूखता है?
बदले हुए चरित्र के अनुसार नये नाम की सार्थकता का विरोध करना किस समझदारी के अन्तर्गत आता है? ग़ज़ल के इस बदले हुए रूप को यदि ‘तेवरी’ नाम से संबोधित किया जा रहा है तो इस नाम पर आपत्ति दर्ज कराने के पीछे क्या कोई हीनग्रन्थि काम नहीं कर रही?
खैर… ग़ज़ल के इस बदले हुए रूप को विनोद कुमार उइके ‘दीप’ हिन्दी ग़ज़ल मानते हैं तो मानते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल का स्वामी विवेकानंद जैसे प्रवचन देने वाला ब्रह्मचारी या सन्यासी अन्ततः भोग तो नारी-देह का लगायेगा ही और अपनी इस काम-क्रिया को सामाजिक सरोकारों की पवित्र प्रक्रिया बताएगा ही। विश्वास न हो तो श्री विनोद कुमार उइके की एक गीत जैसी हिन्दी ग़ज़ल के शे’रों की लहलहाती फसल देख लें-
ग़ज़ल वो ग़ज़ल जो ग़ज़ल-सी लगे, अपने महबूब की हमशक़ल-सी लगे।
जुल्फ, रुख्सार पर बिखरे अशआर ज्यों, मतला पुरनम निगाहों की छल-सी लगे। [तुलसीप्रभा, सित. 2000, पृ. 63]
‘छल-सी लगे’ के अशुद्ध लिंग-प्रयोग को अपनाकर और इस तरह ग़ज़ल यदि हिन्दी में आकर भी आशिक की महबूबा की हमशकल है, उसके अशआर, रुख्सार पर फैली जुल्फों का जुदाई संसार हैं तो उस पर सामाजिक सरोकारों की हल्दी चढ़ाने से क्या फायदा? उसके हाथों में जनधर्मी चिन्तन के हथौड़े शोभा नहीं देंगे। इश्क की गलियों में क्रान्ति लाने के लिये की गयी शब्दों की यह तलवारबाजी, उस हाजी या मौलवी की तरह होगी जो धर्म-धर्म तो चिल्ला रहा है, लेकिन निर्दोषों को मारने या मरवाने के लिये बमों की महत्ता का पाठ भी पढ़ा रहा है।
हिन्दी ग़ज़ल की सत्योन्मुखी, मंगलकारी छवि आज, उस रवि की तरह दिखाई देती है, जिसका चरित्र उजालों से नहीं, अँधेरों से बना है। लेकिन हिन्दी ग़ज़लकार चीख-चीख कर बता रहा है, समझा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल में उजाला घना है।
सामाजिक विकृतियों, त्रासदियों, शोषण, व्यभिचार भरे माहौल को बदलने के लिये क्रान्ति के विचार को मन में पाला-पासा बड़ा और बलशाली किया जाता है। जो विचार काँटे की तरह कसकने लगे, उसका उपचार किया जाना आवश्यक है। उसे निकालकर बाहर फेंक देने में ही समझदारी है। लेकिन हमारे ग़ज़लकार हैं कि इसी कांटे-सी कसकने वाली क्रिया और उससे उत्पन्न पीड़ा को क्रान्ति का एक जरूरी औजार बनाने पर तुले हैं-
हर आदमी के दिल में मचलने लगी ग़ज़ल, अपनी जमीन पाके सँभलने लगी ग़ज़ल।
चुभती थी दिल में आके कभी फाँस की तरह, काँटे-सी अब तो पाँव में गड़ने लगी ग़ज़ल। [प्रसंगवश, फर. 94, पृ. 11]
‘मचलने’ की तुक ‘संभलने’ से मिलाने के बाद ‘गड़ने’ जैसी निकृष्ट तुक पाकर यदि हिन्दी में ग़ज़ल संभल रही है, अपनी जमीन पर आ गयी है, लोगों के दिलों मचल रही है, पाँव में काँटे-सी गड़े होने के बावजूद क्रान्ति के मैदान में अड़ रही है, लड़ रही है, आगे बढ़ रही है तो अचरज कैसा? ऐसा भी होता है। आज के सूरज की कोख में अंधकार का वास होना आम बात है। ग़ज़ल के हिस्से में पहले भी रात थी, अब भी रात है।
आप कहेंगे कि ये भी कोई बात है! तो लीजिए ऐसी ही हिन्दी ग़ज़ल का एक और उदाहरण-
हारी-हारी ग़ज़ल, कारी-कारी ग़ज़ल, आजकल मैं कहूँ ढेर सारी ग़ज़ल।
जुल्म को, लूट को, झूठ को, फूट को, दे रही चोट सबको करारी ग़ज़ल।
[नूर मोहम्मद नूर तुलसीप्रभा सित. 2000, पृ.8]
उपरोक्त हिन्दीग़ज़ल यदि हार के विचार से ग्रस्त है, पस्त है, उसके ओजस स्वरूप का सूर्य अस्त है तो जुल्म को, झूठ को, फूट को, लूट को करारी मात या चोट कैसे दे रही है? यह सोचने का विषय है? यह कैसी अग्निलय है जो सीत्कार में बहते हुए चीत्कार को टटोल रही है। प्रेमिका को बाँहों में भरने के जोश को आक्रोश समझ रही है। चुम्बन के बीच सामाजिक क्रन्दन को सँवारने का नाम ही लगता है हिन्दी ग़ज़ल है??
प्रेमिका के आगमन की प्रतीक्षा में आँखों को दीप-सा जलाये रखना और इन्हीं दीप-सी जलती हुई प्रतीक्षारत आँखों से वर्ग-संघर्ष को उभारना, अँधेरे से उल्लू [शोषक] के तीर मारना है। यह कैसे होता है, एक ग़ज़ल के शे’र प्रस्तुत हैं-
जलें निरंतर राह में इन आँखों के दीप, कब आओगे तुम मेरे दिल में रखने दीप।
तरसें दिवले गार के यूँ गरीब के द्वार, तेल समूचा पी गये कुछ सोने के दीप।
[पुरुषोत्तम ‘यकीन’, तुलसी प्रभा सित.200 पृ.47]
निकृष्ट तुकों के साथ कही गयी ‘यकीनजी’ की उपरोक्त हिन्दी ग़ज़ल के दो शे’रों में ‘आँखों के’, ‘सोने के’-दो दीपक जल रहे हैं। दोनों दीपकों के प्रकाश की चकाचौंध के बीच शोषण का जाप प्रेमालाप के साथ है। यह उजाले भरा वैचारिक माहौल है या उसका मखौल है?
व्यवस्था को ललकारने और प्रेमिका को पुचकारने की क्रिया एक साथ हो तो उमर खय्याम और सुकरात के जहर भरे प्याले को एक ही खाने में फिट किया जा सकता है। और कहीं हो अथवा न हो, हिन्दी ग़ज़ल में यह फार्मूला हिट किया जा सकता है, देखिये-
कभी बने सुकरात कभी हम बने उमर खय्याम,
लेकिन बुझी न प्यास, हो गयी यद्यपि उम्र तमाम।
[आलोक यादव, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.35]
ये कैसी एक जैसी प्यास है, जो सुकरात और उमर खय्याम का आकलन समान तरीके से कर रही है और तमाम उम्र ग़ज़लकार को सताती है? क्या ऐसे ही हिन्दी ग़ज़ल कही जाती है?
वक्त आया तो तेरे दिल की ग़ज़ल कह जाऊँगा
एक दिन तुझसे मैं मंजिल की ग़ज़ल कह जाऊँगा।
यूँ ही गर हिंसा की बातें आप करते ही रहे
एक ही नुक्ते में मकतल की ग़ज़ल कह जाऊँ गा।
डॉ. राजकुमार निजात, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 94
एक अन्य हिंदीग़ज़लकार अशोक आलोक के तेवरों में भी वही वैचारिक स्खलन है। हिन्दी के अन्य ग़ज़लकारों की तरह वे पहले तो इन्कलाब की आग उगलते हैं और फिर दूसरे पल उसी देहभोग की ओर जाने वाली प्रेम की पगडंडी पर चलते हैं-
इन्क़लाबी आग जलने दीजिए, भावनाओं से निकलने दीजिए।
रात के आँचल में टाँकेगा हँसी, चाँद आँगन में उतरने दीजिए।
[तुलसी प्रभा, सित. 2000पृ. 32]
आलोकजी की ग़ज़ल के उपरोक्त ‘मतला’ में ‘जलने’ की तुक ‘निकलने’ से मिलाने के बाद अगले शे’र में तुक के रूप में ‘उतरने’ का अशुद्ध प्रयोग यदि हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य को व्यापक बनाने में सहायता दे सकता है??
‘आकाश’ की तुक ‘विश्वास’ से मिलाकर ग़ज़लकार प्रेम किरण भी हिन्दी ग़ज़ल की बहर को नदी के पास सकते हैं। मोर की तरह पंख फैलाकर नृत्य कर सकते हैं। वे शब्दों को कैसे थिरकाते हैं और क्या बताते हैं आइए देखें-
कथ्य का व्यापक खुला आकाश रखती है ग़ज़ल
दर्द के अनुवाद में विश्वास रखती है ग़ज़ल।
शब्द में हैं इक थिरकते मोर की-सी मस्तियाँ
बहर को बहती नदी के पास रखती है ग़ज़ल। [प्रेमकिरण, तुलसीप्रभा, सित.2000, पृ. 48] ग़ज़ल के उक्त दो शे’रों के कथन से जाहिर है कि बहर की बहती नदी के पास जो मोर की मस्तियाँ है, उसमें मोरनी से वियोग का रोग भी है जो दर्द के अनुवाद में विश्वास रखता है, क्या यही हिंदी ग़ज़ल के खुले आकाश जैसे कथ्य की व्यापकता है?
हर सिम्त इन्कलाब की होली जलाने के लिये भगतसिंह, चन्द्रशेखर ‘आजाद’ हो जाना पड़ता है। बर्बर और अत्याचारी वर्ग की यातनाओं को सहना पड़ता है। त्याग-तपस्या और बलिदान के इम्तिहान से गुजरना पड़ता है। लेकिन हिन्दी ग़ज़ल के ऐसे वीरों को क्या कहेंगे जो मासूक की बिन्दास अदाओं पर रीझते हुए पूरी की पूरी कायनात को सुर्ख अलावों की तरह दहकाने का छ्दम प्रयोग कर रहे हैं-
मेरे यारो! मेरी किस्मत का मिजाज मत पूछो,
वो हैं मासूक की बिन्दास अदाओं की तरह,
हर सिम्त इन्कलाब की होली जलानी है मुझे,
कायनात दहक उठेगा रे सुर्ख अलावों की तरह।
[सागर मीरजापुरी, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 121]
हिन्दी ग़ज़ल विशेषांकों की परम्परा को ‘सौगात’ के सम्पादक-श्याम अंकुर ने भी आगे बढ़ाया है। सौगात-अप्रैल-2009 के रूप में ग़ज़ल विशेषांक हमारे सामने आया है। इस अंक के माध्यम से डॉ. प्रभा दीक्षित आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल में जनवादी तेवर की तलाश करती हैं और कहती हैं-‘‘तबाही की भूमिका आज़ाद भारत में प्रारम्भ से ही बनना शुरु हो गयी थी। अच्छा कवि या शायर मात्रा कल्पना-लोक का ही वासी नहीं होता, उसके अपने सामाजिक सरोकार होते हैं, जिनके द्वारा उसे साहित्य-सृजन की प्रेरणा प्राप्त होती है।
डॉ. प्रभा दीक्षित के अनुसार –1955 में एक फैक्ट्री में काम करने वाले जनकवि श्रमिक ने आमजन की आवाज में चीखते हुए कहा- ‘ग़ज़ल कोठे से उतर कर आगयी फुटपाथ में, पाँव में घुँघरू नहीं/ पत्थर लिये है हाथ में।’
जनकवि श्रमिक के उपरोक्त शे’र में जो बात कही है, उसमें ग़ज़ल को कोठे पर बैठने वाली बताया गया है। इस कोठे पर बैठने वाली के अब पाँव में घुँघरू नहीं है। वह फुटपाथ पर नहीं, फुटपाथ में है और हाथ में पत्थर लिये है। कोठे पर बैठने वाली के साथ ऐसा क्या हुआ जो इस दशा में आ गयी है? क्या कोठे की संचालिका ने उसे किसी बात पर कोठे से बाहर धकेल दिया है या उसकी देह के ग्राहक ने उसे ठग लिया है! कोठे वाली हाथ में पत्थर क्यों लिए है? फुटपाथ पर आकर हाथ में पत्थर थामे यह कोठे वाली क्या अब कोठे वाली अर्थात् ग़ज़ल नहीं पुकारी जाएगी? वह क्या कहलायेंगे? इस सवाल पर हर हिन्दी ग़ज़लकार चुप क्यों है?
रोशनी की बात करने वालों के मन में इस बात को लेकर अंधेरा घुप क्यों है? ग़ज़ल के जनवादी तेवरों की महिमा का बखान करने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सच्चाई यही है कि वे ग़ज़ल को जिस कोठे से उठाने या हटाने का जनवादी दम्भ भरते हैं, उसे उसी कोठे पर बिठाकर उसके अधरों का रसपान भी करते हैं।
इस तथ्य के सत्य को पुष्ट करना हो तो डॉ प्रभा दीक्षित की ही ‘सौगात’ के इसी अंक में प्रकाशित ग़ज़ल को पृ. 17 पर देखा जा सकता है, जहाँ समन्दर नदी के बाल सहला रहा है। मोहब्बत का मिजाज समझाने के लिए किसी का ख्वाब आँखों में आ रहा है-
‘खुशनुमा मंजर था मौसम झूमकर गाने लगा,
जब समंदर खुद नदी के बाल सहलाने लगा।
हमने काफी देर से समझा मोहब्बत का मिजाज,
जब किसी का ख्वाब मेरी आँख में आने लगा।’
अस्तु! इस सबके बावजूद-‘मैं तुझमें मिलने आयी मंदिर जाने के बहाने’ को चरितार्थ करती आज की हिन्दीग़ज़ल के कथ्य में यह तो नहीं कहा जा सकता कि मर्म को स्पर्श करने वाली जीवंत बिम्बात्मकता, नूतन प्रयोगधर्मिता, अनूठी अर्थवत्ता, मौलिक प्रतीकात्मकता, सहजता सरलता, या तरलता का अभाव है,
कथ्य के विरोधभास, विषयवस्तु के गड्डमड्ड चयन, अन्तविरोधों के उन्नयन ने ग़ज़ल को न तो प्रणय, अभिसार, प्रेमालाप का शुद्ध साधन रहने दिया है, और न ये सामाजिक परिवर्तन की अग्निलय बन पायी है। आत्मालाप, व्यक्तिवाद और सामाजिक क्रान्ति के बीच त्रिशंकु की तरह लटकी हिन्दी ग़ज़ल फिलहाल तो उस शिखण्डी के समान है जो युद्ध के मैदान में अर्जुन के साथ डटा है, तालियाँ बजा रहा है, शोषण, अत्याचार, अनीति की रीति के विरुद्ध लड़े जा रहे महाभारत का आनंद अँगुलियाँ चटकाते हुए ले रहा है।
……………………………………………………………………………..
-रमेशराज, ईसा नगर निकट थाना सासनी गेट , अलीगढ २०२००१

Language: Hindi
Tag: लेख
742 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
बात जो दिल में है
बात जो दिल में है
Shivkumar Bilagrami
साथ मेरे था
साथ मेरे था
Dr fauzia Naseem shad
विजयी
विजयी
Raju Gajbhiye
माँ दया तेरी जिस पर होती
माँ दया तेरी जिस पर होती
Basant Bhagawan Roy
निकला वीर पहाड़ चीर💐
निकला वीर पहाड़ चीर💐
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
फैलाकर खुशबू दुनिया से जाने के लिए
फैलाकर खुशबू दुनिया से जाने के लिए
कवि दीपक बवेजा
प्रेम पल्लवन
प्रेम पल्लवन
Er.Navaneet R Shandily
क्या हुआ जो तूफ़ानों ने कश्ती को तोड़ा है
क्या हुआ जो तूफ़ानों ने कश्ती को तोड़ा है
Anil Mishra Prahari
2988.*पूर्णिका*
2988.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
इमोशनल पोस्ट
इमोशनल पोस्ट
Dr. Pradeep Kumar Sharma
*चलो टहलने चलें पार्क में, घर से सब नर-नारी【गीत】*
*चलो टहलने चलें पार्क में, घर से सब नर-नारी【गीत】*
Ravi Prakash
जिंदगी
जिंदगी
अखिलेश 'अखिल'
*मेरी इच्छा*
*मेरी इच्छा*
Dushyant Kumar
दो शे'र
दो शे'र
डॉक्टर वासिफ़ काज़ी
इस जग में हैं हम सब साथी
इस जग में हैं हम सब साथी
Suryakant Dwivedi
सोच समझकर कीजिए,
सोच समझकर कीजिए,
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
मेरी फितरत तो देख
मेरी फितरत तो देख
VINOD CHAUHAN
तुमसे मिलना इतना खुशनुमा सा था
तुमसे मिलना इतना खुशनुमा सा था
Kumar lalit
I.N.D.I.A
I.N.D.I.A
Sanjay ' शून्य'
#अद्भुत_प्रसंग
#अद्भुत_प्रसंग
*Author प्रणय प्रभात*
एक दिन देखना तुम
एक दिन देखना तुम
gurudeenverma198
वो आपको हमेशा अंधेरे में रखता है।
वो आपको हमेशा अंधेरे में रखता है।
Rj Anand Prajapati
"साहस का पैमाना"
Dr. Kishan tandon kranti
🫴झन जाबे🫴
🫴झन जाबे🫴
सुरेश अजगल्ले 'इन्द्र '
कँवल कहिए
कँवल कहिए
Dr. Sunita Singh
हनुमंत लाल बैठे चरणों में देखें प्रभु की प्रभुताई।
हनुमंत लाल बैठे चरणों में देखें प्रभु की प्रभुताई।
Prabhu Nath Chaturvedi "कश्यप"
किए जा सितमगर सितम मगर....
किए जा सितमगर सितम मगर....
डॉ.सीमा अग्रवाल
हम बात अपनी सादगी से ही रखें ,शालीनता और शिष्टता कलम में हम
हम बात अपनी सादगी से ही रखें ,शालीनता और शिष्टता कलम में हम
DrLakshman Jha Parimal
कभी मज़बूरियों से हार दिल कमज़ोर मत करना
कभी मज़बूरियों से हार दिल कमज़ोर मत करना
आर.एस. 'प्रीतम'
सुनो मोहतरमा..!!
सुनो मोहतरमा..!!
Surya Barman
Loading...