हम भूसे में पके आम हो गए हैं
हम दिन प्रतिदिन कमजोर हो रहे हैं
संकुचित दिल हो रहैं है
दिमाग में बन्दूक रखकर
कायर,नफ़रत गर्द हो रहे हैं
असंख्य होते हुए भी
परछाइयों से भयभीत हो रहें है ।
अब प्यार से दहशत होने लगी है
दोस्ती में धर्म और जाति की सूचना बढ़ने लगी है
कहीं संख्या ना कम हो जाय अपने झुण्ड की
सड़क पर हत्यारे बन घूमने लगे हैं
हत्या को धर्म जाति की रक्षा बताकर
देशभक्त धर्माधिकारी हो रहे हैं ।
चीखने-चिल्लाने की मजबूरी हो गयी है
जैसे कि कोई यहाँ दबी आवाज़ सुनता नही हो
जैसे कि कानून का नामोनिशां नही हो
हर बात पर नारे लगाने की मजबूरी हो गयी है
जैसे कि हमारी देशभक्ति को ज़मीर को
सफ़ाई देने की जरूरत हो गयी हो ।
भीड़ से डरते हैं
भीड़ को साथ लेकर चलने लगे है
देहभक्त की ऊँगली पकड़ने की मजबूरी हो रही है
खुद के निर्णय लेने से कतराने लगे है
राष्ट्रगान गाना को भूल
हम अपाहिज, दंगाई सांड हो गए हैं ।
हर सवाल को धर्म,जाति,मिथक और देशद्रोह से जोड़ते हैं
जैसे कि हम कोई ढोंगी औझा हो
घर में बंधे कुत्ते की तरह खूंखार तर्कहीन भोंकते है
हमारा ज्ञान हमारी सोच चिमनी की दूषित गैस हो गयी है
हम आत्मग्रस्त पिछलग्गू हो गए हैं ।
इतिहास के लुटेरों से भयभीत होने लगे है
इतिहास से सीख कम डरने ज्यादा लगे है
टूटी हुई मूर्तियों और खंडहरों पर
भावुक होकर आँसू बहा रहें हैं
नया ईतिहास गढ़ने की बजाय
हम कब्रों पर ध्यान ज्यादा लगा रहे है ।
अर्जित आज़ादी में ताला जड़ संस्कृति का गला घोंट
हम आत्मकेंद्रित हो रहे हैं
जिस सनातनी सभ्यता ने विस्व की
सभी संस्कृतियों को पानी बनकर घोल लिया हो
उसके लिए , विदा होती दुल्हन की तरह रो रहें हैं
मिश्रण छानने के लिए ,प्रगतिशील ऊर्जा खो रहे हैं ।
वसुधैव कुटुम्बकम का पेड़ सूख रहा है
जिसे लगाया था वैदिक ऋषियों ने और सींचा
हमारे विशाल हृदय और आगन्तुकों ने
जिस विरासत पर गर्व था भारत माता को
उस विरासत की हम कब्र खोद रहे हैं
उसे सुपुर्दे ख़ाक कर रहें है ।
हमारी सोच कुंद हो गयी है
लेखनी कर्तव्यहीन-भीरु हो गयी है
सत्य बोलने से डरने लगे हैं
हर प्रश्न पर जनरल डायर हो गए हैं
कुंठित होकर मन ही मन गलने लगे है
हम संकुचित रसहीन भूसे में पके आम हो गए हैं ।