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11 Jul 2019 · 8 min read

स्टडी इन इंडिया

स्टडी इन इंडिया – राहुल, तेरा क्या प्लान है अब’ रुचित ने पूछा। दोनों मित्रों ने बारहवीं की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी। ‘रुचित, मेरे मम्मी पापा तो मुझे पढ़ाई के लिए विदेश भेज रहे हैं, तो मुझे क्या सोचना’ राहुल ने जवाब दिया। ‘पर हमारे नंबर इतने बढ़िया हैं कि हमें दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिल सकता है’ रुचित ने कहा। ‘यह तो तू ठीक कह रहा है, पर मेरे बड़े भाई के अनुभव को देखते हुए पापा ने यही फैसला लिया है कि मैं विदेश पढ़ने जाऊँ’ राहुल ने समझाया। ‘पर तुझे मालूम होना चाहिए कि इस साल से सरकार ने ‘स्टडी इन इंडिया’ योजना शुरू करने का फैसला किया है ताकि विदेशी छात्र भारत में पढ़ने के लिए आकर्षित हो सकें‘ रुचित ने आगे कहा ‘इस योजना के अनुसार हमारे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाया जाएगा।’ ‘देख भई, मुझे ज्यादा तो नहीं मालूम पर तू आज शाम को घर पर चले आना। वहीं पापा से बात कर लेंगे’ राहुल ने कहा। ‘ठीक है’ रुचित ने कहा।

‘नमस्ते अंकल’ रुचित ने राहुल के पापा को आदर सहित कहा। ‘आओ बेटे, यहाँ बैठो’ राहुल के पापा ने कहा। ‘अंकल …’ रुचित ने कहना शुरू किया। ‘बेटे, मुझे मालूम है तुम क्या कहना चाहते हो। राहुल को पढ़ाई के लिए विदेश भेजने का तो मैंने तभी फैसला कर लिया था जब विवेक को पोस्ट-ग्रेजुएशन के समय दिल्ली में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था’ राहुल के पापा ने अपनी बात को अल्पविराम देते हुए कहा। ‘पर अंकल अब तो हमारे देश में उच्च शिक्षा संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाया जायेगा। जब देश के शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता बढ़ेगी तो हमारे देश से विदेश जाने वाले छात्रों की सोच बदलेगी और वे यहीं पढ़ना पसन्द करेंगे’ रुचित ने भारत सरकार की ‘स्टडी इन इंडिया’ योजना की चर्चा करते हुए कहा।

‘रुचित बेटे, सिर्फ आलीशान भवन बनाने और बड़े-बड़े विज्ञापन तथा मार्केटिंग करने से शिक्षा संस्थान उच्च नहीं हो जाते। न केवल सहयोगी भावना वाले गुणी व निष्पक्ष अध्यापकों की जरूरत है अपितु उन संस्थानों में कार्य करने वाले प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों का रवैया भी विश्वस्तर का होना चाहिए। विवेक को निःसंदेह कई अध्यापक बहुत ही अच्छे मिले पर उसका अधिकतर अनुभव बहुत खराब रहा। विशेषकर प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों का। छोटी-छोटी बातों पर घंटों खराब हो जाते थे। जिसे देखो एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालता चलता था। जिस पद पर कार्य कर रहे थे उस पद की जिम्मेदारियों के अलावा उस पद के कर्तव्यों के बारे में ही ज्ञान न था। किसी भी कार्य को करने के लिए रुपये चाहिएं। साॅरी, किन्तु यह सच है। हमारे यहां भाई भतीजावाद का कोई जवाब नहीं।’

‘विवेक को पढ़ाने वाले दो अध्यापक बहुत ही गुणी और अच्छे थे जिनके जैसे उदाहरण मिलने मुश्किल हैं पर उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि एक तो वे अस्थायी थे और दूसरा उन्हें हटाकर अपने चहेतों को नौकरी दे दी गई थी। जब विवेक ने रिसर्च करने की सोची और उसके बारे में जानकारी हासिल की तो उसके रोंगटे खड़े हो गये। उसने जाना कितने ही गाइड और प्रौफेसर खुदगर्ज हैं, गुटबाजी में विश्वास करते हैं । उन्हें अपना नाम चाहिए और वह भी प्रथम स्थान पर। विवेक का दिल ही खट्टा हो गया। वह बहुत परेशान हुआ। उसे चापलूसी करनी नहीं आती थी और न ही पैसे देकर काम कराना। अतः हम सबने मिलकर निर्णय लिया कि उसे विदेश भेज दिया जाये।’

‘जानते हो विवेक ने विदेश की धरती पर जब कदम रखा और अपने संस्थान में गया तो वहां की कार्यशैली देखकर दंग रह गया। सभी ईमानदार और मेहनती। काम के वक्त काम करने वाले। भारतीयों की तरह बार-बार चाय मंगाते रहना और समय नष्ट करना, ऐसा वहां कुछ भी नहीं था। हर तरफ से सहयोग मिलता, चाहे अध्यापक हों या प्रशासनिक अधिकारी। संस्थान में दाखिला लेने के बाद उसे बैंक में अपना खाता खुलवाना था। विवेक यह सोचकर ही परेशान था कि वहां खाता खुलवाने की औपचारिकताएं पूरी करवाने में मदद कौन करेगा। वह बैंक गया और उसने अधिकारी से बात की। यहां उसकी हैरानी और बढ़ गई जब मात्र 3 मिनट में उसका खाता खुल गया। यदि ऐसी व्यवस्था हो तो प्रगति का मार्ग खुद प्रशस्त होता चला जाता है।’

‘अंकल, आप का अनुभव अपनी जगह है, पर सब कोई तो एक जैसे नहीं होते’ रुचित ने कहा। ‘बेटा, क्या बताऊँ, विदेश में रहने के बाद अचानक उसे यहां के यूनिवर्सिटी से एक प्रमाण-पत्र की आवश्यकता पड़ गई और तुम जानकर हैरान होगे कि वह प्रमाण-पत्र लेने में उसे दो महीने लग गए। यह हमारी लचर व्यवस्था का परिणाम है। तुम किसी डाकखाने या बैंक में चले जाओ। अगर सीट पर बैठा तुम्हारा जानने वाला है तो तुम्हें अन्दर केबिन में बुला कर तुम्हारा काम कर देगा बाहर लाइन में लगे लोग जितना मर्जी चिल्लाते रहें उसे कोई असर नहीं होता। यहां बहाने ज्यादा और काम कम होते हैं’ रोहित के पापा बोले।

‘पर अंकल यदि सब यही सोच लें तो भारत में कौन पढ़ेगा’ रुचित ने कहा। ‘मैं तुम्हारी बात समझता हूं पर यहां किसे फिक्र है, देश रसातल में जाये तो जाये, उनकी बला से। कार्य करने वाले सोचते हैं कि सैलेरी से क्या होता है, ऊपर की कमाई होनी चाहिए’ रोहित के पापा ने बताया। ‘पर अभी सरकार ने निकम्मे अधिकारियों और कर्मचारियों पर नकेल कसने की तैयारी की है’ रुचित ने कहा। ‘बेटा, हमारा देश बहुत विशाल है, इसे सुधरने में सदियां लग जायेंगी। तुमने सुना होगा लोग अक्सर कहते हैं कि इससे तो गुलामी ही अच्छी थी। क्यों कहते हैं? कभी सोचा है? अभी तुम बच्चे हो, देर में समझ आयेगी’ रोहित के पापा ने समझाया।

‘यह तो विचित्र स्थिति है, ऐसे तो कोई भी यहां नहीं पढ़ना चाहेगा’ रुचित ने कहा। ‘तुम कामर्स के विद्यार्थी हो, तुम्हें मालूम होना चाहिए बरसों पहले शेयर बाजार की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुए। पहले शेयर खरीदने के लिए फार्म भरने के तरीके अलग थे। शेयर अलाट होने पर अलाटमेंट मनी देनी होती थी, फिर एक या दो बार में बाकी राशि ली जाती थी। पैसे न भर पाने पर शेयर जब्त कर लिये जाते थे। और भी अनेक बातें थीं। अब इसमें बिलकुल ही उलटफेर हो गया है, ऐसी कोई स्थिति आती ही नहीं है। पर स्कूलों में देखो अकाउन्ट्स में तुम्हें वही पुराने ढर्रे वाली बातें पढ़ाई जा रही हैं जो मृत हो चुकी हैं। यह भी कोई तुक है। जो प्रणाली प्रचलन में नहीं है, उसे क्यों पढ़ाया जा रहा है, सरासर बेअक्ली का नमूना है यह। सिर्फ इसीलिए पढ़ाया जा रहा है कि उससे संबंधी किताबें बिकें। क्यों नया ज्ञान नहीं बांटा जा रहा। यह तो एक उदाहरण है।’ रोहित के पापा व्यवस्था को कोस रहे थे ‘क्यों हमारे देश के शिक्षा शास्त्रियों का ध्यान इस ओर नहीं जाता?’ रुचित निरुत्तर था।

‘और सुनो बेटा, मेरे एक मित्र का बेटा बारहवीं पास करने के बाद अनेक लोगों की सलाह से देहरादून के सुप्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थान में बीसीए करने गया। फीस के अलावा होस्टल और खाने के नाम पर बहुत पैसे लिये गये। पर जानते हो खाने में क्या दिया जाता था – अधपकी रोटी, कच्चे चावल, लौकी या घीये अथवा आलू की सब्जी। कैंटीन में यह खाना परोसने वाला वहीं ठेकेदार संस्थान की दीवार के बाहर प्राइवेट व्यवस्था करता और एक से एक लजीज व्यंजन परोसता पर उसके लिए वि़द्यार्थियों को अलग से पैसे खर्चने होते। बाहर खाने पर कैंटीन में दिये गये पैसे बेकार हो जाते। अगर अभिभावक शिकायत करते तो उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। कैंटीन में सप्लाई किया जाने वाला भोजन पौष्टिक नहीं होता था जोकि विद्यार्थियों के साथ अन्याय था। हार कर मेरे मित्र ने पहले साल के बाद ही अपने बेटे को वहां से निकाल लिया और विदेश भेज दिया। वहां तो उसकी काया ही पलट गई और उसमें गजब का आत्मविश्वास पैदा हो गया है। जब यहां लालच है, स्वार्थ है, अन्याय है तो केवल उच्च शिक्षा संस्थानों के खोले जाने से क्या होगा जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी। और तो और जब संस्थान में नोट्स वितरित किये जाते तो अक्सर इतनी हलकी छपाई होती थी कि पढ़ने में ही आंखें फूट जायें। क्लर्क या अन्य अधिकारी न जाने कौन सा इम्तहान या इंटरव्यू पास कर नौकरी कर रहे थे जिन्हें लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। एक बार सरकारी नौकरी लग गई तो फिर चिन्ता काहे की’ रोहित के पापा ने और खुलासा किया। ‘अब तुम बताओ, ऐसी स्थिति में तुम क्या करोगे?’ रोहित के पापा ने फिर पूछा।

‘हर कोई तो विदेश नहीं जा सकता है न’ रुचित ने पूछा। ‘ठीक कहते हो बेटे, हर कोई नहीं जा सकता इसीलिए मजबूरी में यहां पढ़ना पड़ता है और इसलिए हमारे देश की प्रगति धीमी है। एक समय होता था जब विश्व से लोग यहां पढ़ने आते थे। अब तुम्हीं देख लो विदेश में पढ़े और यहां पढ़े विद्यार्थियों की सोच में कितना अन्तर होता है। यदि सरकार को ‘स्टडी इन इंडिया’ वाकई में सफल बनाना है तो इन सब बातों पर गंभीरता से ध्यान देना होगा‘ रोहित के पापा ने समझाया ‘पर कौन करेगा, इसके लिए युद्धस्तर पर परिवर्तन लाने होंगे। हर एक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना होगा। व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। पल पल में चाय पीने जैसी आदत को तोड़ना होगा। पान या पान मसाला चबाने वाले कर्मचारियों को चेतावनी देनी होगी। समय का पालन करना होगा। भाई भतीजावाद खत्म करना होगा। किसी भी प्रक्रिया को न्यूनतम समय में निपटाना होगा। ’

‘बात चल ही पड़ी है तो और बताता हूं। यहां के सरकारी संस्थानों में यदि कोई ईमेल करे तो जवाब ही नहीं आता है अगर आता भी है तो लम्बे समय बाद और वह भी अस्पष्ट। मैंने भी एक ईमेल किया हुआ है दो महीने से कोई जवाब नहीं है । जबकि विदेशी संस्थानों में जवाब तुरन्त और एकदम स्पष्ट आता है। एडमिशन प्रक्रियाएं समय से आरम्भ होती हैं, यहां की तरह अनिश्चितता का माहौल नहीं होता। भुगतना तो छात्रों को ही पड़ता है। अधिकारियों का क्या, वे तो कोई बहाना देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। अन्यथा सबसे बड़ा हथियार है ‘हड़ताल’। तुम्हें पता भी है दिल्ली विश्वविद्यालय में न जाने कितने बरसों से स्थायी नियुक्तियां नहीं हुई हैं। जब भी रिक्तियां निकलती हैं तो आवेदक फार्म के साथ फीस भरते हैं। पर नियुक्तियां रद्द कर दी जाती हैं किन्तु फीस तो वापिस नहीं की जाती। यह कैसा न्याय है? कौन इसके लिए जिम्मेदार है? कितने ही प्रश्न हैं? अध्यापक की जिम्मेदारी पढ़ाने की होती है और उसे इंसाफ लेने के लिए हड़ताल का सहारा लेना पड़ता है। क्यों कोई ऐसी व्यवस्था नहीं की जाती कि इन सब की नौबत ही न आए’ राहुल के पापा बोलते हुए रुक गए और फिर बोले ‘रुचित बेटे, बहुत देर हो गई है, बातें तो बहुत हैं बाकी फिर कभी, अब आओ खाना खा लें।’ खाना खाते खाते रुचित दुविधा में पड़ गया था – ‘स्टडी इन इंडिया’ या ‘स्टडी इन विदेश’।

Language: Hindi
Tag: लेख
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