Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Feb 2017 · 8 min read

व्यंग्य एक अनुभाव है +रमेशराज

डॉ. शंकर पुणतांबेकर से मेरी भेंट बरेली लघुकथा सम्मेलन में हुई। लघुकथाकारों के बीच मुझे डॉ. शंकर पुणतांबेकर काफी सुलझे हुए विचारों वाले चिन्तक लगे। ‘वर्तमान साहित्य में रस’ पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘वर्तमान साहित्य को रस की पुरानी पद्यति के आधार पर नहीं आका जा सकता।.. इसके लिये हमें नये रसों की खोज करनी पड़ेगी।’’ इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘मेरे विचार से वर्तमान साहित्य में ‘बुद्धि रस’ या ‘विचार रस’ की निष्पत्ति होती है।’’
डॉ. पुणतांबेकर की इस बात से तो मैं सहमत हुए बगैर न रह सका कि वर्तमान यथार्थोन्मुखी साहित्य के आकलन के लिये हमें रस की परम्परागत कसौटी का तो परित्याग करना ही पड़ेगा, इसके साथ-साथ इसके आकलन के लिये नये रसों का खोजा जाना भी आवश्यक है | वैसे भी यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं होगी। आचार्य भरतमुनि के बाद भी तो रस परम्परा को जीवंत और प्रासंगिक बनाने के लिये भक्ति रस, शान्त रस जैसे मौलिक रसों की खोज की गयी। लेकिन उनका यह मानना कि वर्तमान कविता में ‘बुद्धि रस’ या ‘विचार रस’ जैसा कोई रस होना चाहिए या हो सकता है, मुझे अटपटा और अतर्कसंगत महसूस हुआ। मैंने डाक्टर साहब से इस विषय में निवेदन किया कि ‘‘ बिना बुद्धि या विचार के आश्रयों के मन में क्या किसी प्रकार से या किसी प्रकार की रसनिष्पत्ति सम्भव है? भाव तो विचार की ऊर्जा होते हैं। विचार के बिना भाव का उद्बोधन किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यदि हमारे मन में यह विचार नहीं कि राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए’’ तो ऐसे विचार के बिना कैसी राष्ट्रभक्ति? शत्रु पक्ष को कुचलने का विचार यदि मानव को उद्वेलित न करें तो कैसे होगी रौद्र-रस की निष्पत्ति? ठीक इसी प्रकार यदि हमारे मन में यह विचार घर किये हुए न हो कि सामने शेर है और वह कभी भी हमारे प्राण ले सकता है तो कैसे होगा हमारे मन में भय का संचार? अतः यह तो मानना ही पड़ेगा कि रस के निर्माण में बुद्धि अपनी अहं भूमिका निभाती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हमने रस को बुद्धि तत्त्व से काटकर कोरी भावात्मकता की ऐसी अन्धी गुफाओं में कैद कर डाला, जहां तर्क और विज्ञान की रोशनी पहुंचने की कोई गुंजाइश नहीं। परिणाम हम सबके सामने हैं कि रीतिकाल का कूड़ाकचरा और छायावाद-प्रयोगवाद की यौन कुंठाओं से भरी हुई कविता भी कथित सूक्ष्म अनुभूति का रसात्मक पक्ष बन गयी। बहरहाल इस चर्चा में डॉ. पुणतांबेकर ने यह तो स्वीकारा कि रस को बिना बुद्धि के तय नहीं किया जा सकता। लेकिन ‘बुद्धि रस’ या ‘विचार रस’ के प्रति वह अपने आपको तटस्थ रखते हुए चुप हो गये।
रस के संदर्भ में यह सारी चर्चा यहां इसलिए उठायी गयी है क्योंकि ‘व्यंग्य-विविधा’ नामक पत्रिका के अंक-दो में ‘ विवाद एक विधा का’ के अन्तर्गत कुछ इसी प्रकार की चर्चा विभिन्न पत्रों में की गयी है, जो डॉ. शंकर पुणतांबेकर के आलेख ‘विधा के रूप में व्यंग्य की स्थापना’ से सम्बन्धित है। ‘व्यंग्य’ एक विधा है अथवा नहीं, इसे तो तय व्यंग्यकारों को ही करना है। फिलहाल अपने आपको इस सारे पचड़े से दूर रखते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि व्यंग्य के बिना वर्तमान साहित्य को सार्थक, प्रासंगिक नहीं ठहराया जा सकता। व्यंग्य वर्तमान साहित्य का प्राण है, बशर्ते उसमें सत्य और शिव का समन्वय हो।
‘तेवरी में रस-समस्या और समाधान’ नामक अपनी पुस्तक में मैंने व्यंग्य की इसी प्रकार की सार्थकता को दृष्टिगत रखते हुए तेवरी का रसपरक विवेचन किया है और व्यंग्य को वाचिक अनुभाव मानते हुए यह सिद्ध किया है कि व्यंग्य एक वाचिक अनुभाव है और यह वाचिक अनुभाव साहित्य में ‘विरोध’ और ‘विद्रोह रस’ की निष्पत्ति कराता है।
दो-दो नये रस-‘विरोध’ और ‘विद्रोह’ की खोज करते हुए इनके स्थायी भाव मैंने क्रमशः ‘आक्रोश’ और ‘असंतोष’ बताये हैं। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि में मैं ‘व्यंग्य विविधा-दो’ में ही ‘व्यंग्य की शैली’ शीर्षक डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के आलेख का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा कि-‘‘ व्यंग्य हर समय में परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका में रहता है। व्यंग्यकार अपने समय की शोषित-भ्रमित जनता के दर्द का उद्घोषक होता है। लक्ष्यच्युत समाज की आंख में उंगली डालकर दोनों की परिसमाप्ति करना चाहता है। हर युग की हर भाषा के समर्थ व्यंग्यकार की सर्जना में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा इतनी अधिक रही है कि व्यंग्यालम्बन के तन-मन को बेचैन कर डालने के लिये पर्याप्त है। सजग व्यंग्यकार के पास परिवेशगत सड़ांध और मवाद को महसूसने वाली सही घ्राणचेतना होती है और जेहाद छेड़ने की अनूठी भाषायी शक्ति भी। एक सनसनाती हुई तेजी के साथ व्यंग्यकार जो कुछ टूटने योग्य है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करता है।’’
डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के उल्लेखित अंश के आधार पर निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
1. बकौल डॉ. तिवारी-व्यंग्य में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा होती है जो परिवेशगत अन्तर्विरोधों, स्खलित चलनों, लक्ष्यच्युत समाज की परिसमाप्ति के लिये अर्थात्, जहां जो कुछ टूटने योग्य है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करती है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के कार्य को करने की क्षमता अर्थात् ऊर्जा काव्य में कहां से प्राप्त होती है?
प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसे डाक्टर बालेन्दु शेखर तिवारी व्यंग्य में अन्तर्निहित कुनैन की तीतापन और तेजाब की दाहक मात्रा कह रहे हैं, वह कभी ‘आक्रोश’ में तो कभी ‘असंतोष’ में प्रकट होने वाली वह ऊर्जा है जो रस परिपाक की अवस्था में कभी ‘विरोध’ तो कभी ‘विद्रोह’ से आश्रयों को सिक्त करती है। रसपरिपाक के रूप में यह ऊर्जा का चरमोत्कर्ष ही जब कार्य करने की दर अर्थात् शक्ति [व्यंग्य] में प्रकट होता है तो व्यंग्यालंबनों [परिवेशगत अन्तर्विरोध, सडांध और मवाद, लक्ष्यच्युत समाज] के प्रति जेहाद ही नहीं छेड़ता, इनमें जो कुछ टूटने योग्य होता है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करता है। बात को समझाने के लिये ‘व्यंग्य विविधा-दो’ से ही प्रख्यात व्यंग्यकार शरदजोशी के व्यंग्य का उदाहरणस्वरूप एक अंश प्रस्तुत है-
‘‘कांग्रेस ने अहिंसा की नीति का पालन किया और उस नीति की सन्तुलित किया लाठीचार्ज और गोली से। सत्य की नीति पर चली। सच बोलने वालों से सदा नाराज रही। हस्तकर्धा और ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया और उसकी टक्कर लेने के लिये कारखानों को लायसेंस दिये।“
शरद जोशी की उल्लेखित पंक्तियों का यदि हम रसात्मक विवेचन करें तो इन पंक्तियों में आलम्बन तो कांग्रेस है और रसात्मकबोध को पैदा करने वाला आलम्बनगत उद्दीपन विभाव अर्थात् आलम्बन का वह धर्म या आचरण है, जिसकी पहचान आश्रय के रूप में रचनाकार अन्तर्विरोधों, दुराचरणों, थोथे आदशों के रूप में करता है और वह जब यह निर्णय ले लेता है कि ‘कांग्रेस की सन्तुलित नीति वह कथित नीति है, जिसका पालन वह अहिंसा का आदर्शवादी मुखौटा पहनकर जनता पर लाठी चार्ज और गोली चलाकर करती है। सत्यवादी होने का ढोंग रचकर सच का गला काटती है। ग्रामोद्योग के थोथे आश्वासन देकर शहरों में बड़े-बड़े कारखानों का विकास करती है’’ तो उसे कांग्रेस के घिनौने और जनविरोधी चेहरे की पहचान हो जाती है कि कांग्रेस वास्तव में थोथे आदर्शों, घिनौने आचरण वाली एक पार्टी है।’’
जब आश्रय [रचनाकार] के मन को यह विचार ऊर्जस्व अवस्था में आता है तो उसका मन कांग्रेस के प्रति ‘आक्रोश’ से सिक्त हो जाता है। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-‘‘ आक्रोश शब्द आड. उपसर्ग पूर्वक क्रुश धातु में ध प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। जिसका अर्थ है क्रोध, कर्तव्य निश्चय, आक्षेप, अभिषंग, शाप, कोसना, निंदा करना, कटूक्ति आदि।’ बिलबिलाहट आक्रोश का व्यवहार रूप है। आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आंतरिक घृणा का मूर्त रूप है, जो असंगति, विसंगति को हटाने का काम करता है। व्यंग्य लेखक इसका उपयोग कभी सीधे, कभी प्रकारान्तर से करता है, पर इसका मूल लक्ष्य बुराई या कमी को दूर करना है। चाहे लघुकथा हो, लघुव्यंग्य हो, तेवरी हो या साहित्य की कोई अन्य विधा, आक्रोश अपने रोशन पहलू के रूप में हमारे सामने आता है।’’
डॉ. स्वर्ण किरण की उपरोक्त मान्यता के आधार पर हम यदि शरद जोशी के उद्धृत अंश में आक्रोश की स्थिति देखें तो आश्रय के रूप में व्यंग्यकार के जो वाचिक अनुभाव यहां अपना व्यंग्यात्मक स्वरूप ग्रहण करते हैं, उसमें कांग्रेस की घिनौनी आचरणशीलता की निन्दा, कोसने की क्रिया, आक्षेप आदि लगाना व्यंग्य के रूप में अनुभावित हुआ है। इन अनुभावों के सहारे हम यह आसानी से पता लगा सकते हैं कि व्यंग्यकार के मन में कांग्रेस के प्रति जिस प्रकार की बिलबिलाहट, छटपटाहट मौजूद है, वह आक्रोश को व्यक्त करने के पीछे आखिर प्रयोजन या उद्देश्य क्या है?
मेरा मानना है व्यंग्य के पाठकों को आक्रोश से सिक्त कर कांग्रेस के दुराचरण का विरोध। व्यंग्यकार की वैचारिक ऊर्जा यहां आक्रोश के रसपरिपाक ‘विरोध’ से लैस होने के कारण ही, कांग्रेस के आचरण की निन्दा, भर्त्सना करती है। यदि यहां कांग्रेस का आचरण बदलने का विचार आक्रोश से विरोध की रस परिपाक की अवस्था तक व्यंग्यकार के मन में ऊर्जस्व न रहा होता तो शरद जोशी का यह व्यंग्य अपनी एक विशेष शैली में ‘परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका नहीं निभा सकता था। और न व्यंग्यकार का प्रयोजन या उद्देश्य सफल हो पाता।
अस्तु भाव विचार की ऊर्जा होते हैं और वह शक्ति के रूप में अनुभावों में प्रकट होते हैं। व्यंग्य व्यंजनाशक्ति के अन्तर्गत आता है, अतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि व्यंग्य ‘विरोध रस’ का एक वाचिक अनुभाव है जो एक विशिष्ट प्रकार की शैली में व्यक्त किया गया है। व्यंग्य के माध्यम से विरोध रस की स्थिति शरद जोशी के उल्लेखित व्यंग्य ‘शानदार उपलब्धियों के चालीस वर्ष’ में अपनी परिपाक अवस्था में इस प्रकार देखा जा सकता है-‘‘ जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता, ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा, लालच कायम है, कांग्रेस बनी रहेगी।’’
व्यंग्यकार की उक्त पंक्तियां का अनुभावन जब व्यंग्य के पाठक या श्रोताओं के मन में होगा तो इस व्यंग्य के सही और सत्योन्मुखी पक्ष पर विचार करते हुए पाठकों में स्थायी भाव ‘आक्रोश’ जाग्रत होगा और जब उनके मन को यह विचार कि ‘कांग्रेस आचरणहीन, मुखौटेबाज, जनघाती पार्टी है, जिसे अब तो बदल देना ही चाहिए’, पूरी तरह उद्वेलित कर डालेगा तो स्थायी भाव आक्रोश, विरोधरस की निष्पत्ति करायेगा। लेकिन रस की इस समस्त प्रक्रिया को ‘भाव के साथ विचार’ से जोड़ना ही पड़ेगा। इस संदर्भ में हमें निम्न बिन्दुओं पर अवश्य विचार करना होगा-
1. भाव विचार से जन्य ऊर्जा होते हैं।
2. जिस प्रकार का विचार आश्रय के मन में अन्तिम निर्णय के रूप में सघन होता है, उसी के अनुसार कोई न कोई भाव स्थायित्व ग्रहण कर लेता है। भाव मनुष्य के हृदय में संस्कार रूप में पड़े रहते हैं, यह तर्क अविज्ञानपरक और बेबुनियाद है।
3. रस की निष्पत्ति आलम्बन से नहीं, आलम्बन के धर्म द्वारा होती है।
4. पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा गिनाये गये रसों पर ही रस-संख्या खत्म नहीं हो जाती, काव्य की वैचारिक प्रणाली ज्यों-ज्यों तब्दील होती जायेगी, रसों में भी गुणात्मकता बढ़ोत्तरी संभव है।
5. काव्य का सम्बन्ध जब आश्रय अर्थात् पाठक, श्रोता या दर्शक से जुड़ता है तो यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें उसी रस की निष्पत्ति हो, जो कि काव्य में अन्तर्निहित है।
7. व्यंग्य के संदर्भ में ‘विरोध रस’ का परिपाक व्यंग्य अर्थात् वाचिक अनुभाव में अन्तर्निहित वक्रोक्ति, प्रतीकात्मकता, सांकेतिकता, व्यंजनात्मकता के सहारे ध्वनित होने वाले अर्थ को समझे बिना संभव नहीं।
————————————————————————
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
238 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
हिन्दी
हिन्दी
manjula chauhan
जीवन का इतना
जीवन का इतना
Dr fauzia Naseem shad
आगाज़-ए-नववर्ष
आगाज़-ए-नववर्ष
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
I lose myself in your love,
I lose myself in your love,
Shweta Chanda
श्रेष्ठ वही है...
श्रेष्ठ वही है...
Shubham Pandey (S P)
23/194. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
23/194. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
आक्रोष
आक्रोष
Aman Sinha
* थके पथिक को *
* थके पथिक को *
surenderpal vaidya
■ चाल, चेहरा और चरित्र। लगभग एक सा।।
■ चाल, चेहरा और चरित्र। लगभग एक सा।।
*Author प्रणय प्रभात*
हास्य कथा :अहा कल्पवृक्ष
हास्य कथा :अहा कल्पवृक्ष
Ravi Prakash
फेसबुक
फेसबुक
Neelam Sharma
बारह ज्योतिर्लिंग
बारह ज्योतिर्लिंग
सत्य कुमार प्रेमी
मंत्र :या देवी सर्वभूतेषु सृष्टि रूपेण संस्थिता।
मंत्र :या देवी सर्वभूतेषु सृष्टि रूपेण संस्थिता।
Harminder Kaur
💐 Prodigy Love-9💐
💐 Prodigy Love-9💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
पूछी मैंने साँझ से,
पूछी मैंने साँझ से,
sushil sarna
वो छोटी सी खिड़की- अमूल्य रतन
वो छोटी सी खिड़की- अमूल्य रतन
Amulyaa Ratan
हम
हम
Ankit Kumar
"होली है आई रे"
Rahul Singh
दोहे-बच्चे
दोहे-बच्चे
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
राम नाम
राम नाम
पंकज प्रियम
जर्जर है कानून व्यवस्था,
जर्जर है कानून व्यवस्था,
ओनिका सेतिया 'अनु '
कुछ पल साथ में आओ हम तुम बिता लें
कुछ पल साथ में आओ हम तुम बिता लें
Pramila sultan
बहुत मशरूफ जमाना है
बहुत मशरूफ जमाना है
नूरफातिमा खातून नूरी
भटके वन चौदह बरस, त्यागे सिर का ताज
भटके वन चौदह बरस, त्यागे सिर का ताज
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
जागृति और संकल्प , जीवन के रूपांतरण का आधार
जागृति और संकल्प , जीवन के रूपांतरण का आधार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
वनमाली
वनमाली
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
ख्वाब सुलग रहें है... जल जाएंगे इक रोज
ख्वाब सुलग रहें है... जल जाएंगे इक रोज
सिद्धार्थ गोरखपुरी
शेर
शेर
Dr. Kishan tandon kranti
दुनियादारी....
दुनियादारी....
Abhijeet
तुम्हारी आंखों का रंग हमे भाता है
तुम्हारी आंखों का रंग हमे भाता है
ठाकुर प्रतापसिंह "राणाजी"
Loading...