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9 Aug 2016 · 1 min read

वेश्या एक कड़वा सच

ये कहने में नहीं आती लाज है कि वेश्या हूँ मैं,
सच में अपने ऊपर मुझे नाज है कि वेश्या हूँ मैं।
इन दुनिया वालों की अब करती परवाह नहीं हूँ,
किसी से छिपा नहीं मेरा राज है कि वेश्या हूँ मैं।

भूल जाते हैं समाज के ठेकेदार अक्सर एक बात,
दिन ढ़लते ही मेरे लिए उनके मचलते हैं जज्बात।
दिन के उजालों में नफरत है उन्हें मेरी गली से भी,
पर रात के अँधेरे में होती है मेरी उनकी मुलाकात।

लोगों की तरह ज़मीर नहीं बस अपना तन बेचती हूँ,
दौलत की आरजू में यहाँ नहीं अपना वतन बेचती हूँ।
होती मेरी मोहब्बत से भी किसी के आँगन में रौशनी,
पर जिस्म के भूखे भेड़ियों की तरह नहीं मन बेचती हूँ।

समाज ने दिया जन्म मुझे यहाँ अपने पाप छिपाने को,
बस जरिया बनाया मुझे अपने तन की प्यास बुझाने को।
मन की पीड़ा नहीं समझी औरत को देवी बताने वालों ने,
कोई नहीं आता पास मेरे, मेरी बर्बादी पर आँसू बहाने को।

सुलक्षणा पूछना उन समाज के ठेकेदारों से एक सवाल,
मुझे दलदल से निकालने को क्यों नहीं करते हैं बवाल।
अगर हूँ कलंक मैं समाज पर पर तो जिम्मेदार कौन है,
क्यों नहीं अपनाते वो मुझे, जी सकूँ मैं जिंदगी खुशहाल।

©® #डॉसुलक्षणाअहलावत

Language: Hindi
6 Comments · 1727 Views
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