Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 6 min read

विचार, संस्कार और रस-4

एक कवि द्वारा सृजित काव्य जिन परिस्थितियों में एक सामाजिक द्वारा आस्वाद्य होता है, उसके लिए उस सामाजिक का काव्य-सामग्री के प्रति रुचि लेना परामावश्यक है। सामाजिक की रुचि का विषय, किसी काव्य-सामग्री को पढ़कर मात्र रस या आनंद ग्रहण करना ही नहीं होता, वह उस काव्य-सामग्री में वर्णित मूल्यों का विवेचन करने, उसके सामाजिक प्रभाव देखने, उसमें कुछ नया खोजने या पाने की दृष्टि से भी काव्य का अध्ययन करता है। किसी भी काव्य-सामग्री की सार्थकता या निरर्थकता का संबंध आस्वादक या सामाजिक की वैचारिक अवधारणाओं पर निर्भर रहता है और आस्वादक की पूर्व निर्धारित वैचारिक अवधारणाएं उसके मन में विभिन्न प्रकार की रसात्मकता पैदा करती हैं।
एक सुधी पाठक के मन में उसकी वैचारिक अवधारणाओं के अनुसार किस प्रकार और कैसी रसात्मकबोध की स्थिति बनती है, इसके लिए एक प्रामाणिक सुधी पाठक के रूप में यदि हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विवेचना करें और उस रस-दशा के निर्माण में उनके संस्कारों अर्थात् जीवन-मूल्यों के योगदान को परखें तो यह तथ्य खुलकर सामने आ जाते हैं कि किसी भी सामाजिक में समस्त प्रकार का भावोद्बोधन विचारों के द्वारा ही संपन्न होता है। आचार्य शुक्ल रामायण के आस्वादनोपरांत भक्तिरस से सिक्त होते हुए कहते हैं-‘‘ आदिकाव्य के भीतर लोकमंगल की शक्ति के उदय का आभास ताड़का और मारीच के दमन के प्रसंग में ही मिल जाता है। पंचवटी में वह शक्ति जोर पकड़ती दिखाई देती है। सीता-हरण होने पर उसमें आत्मगौरव और दाम्पत्य प्रेम की प्रेरणा बीच में प्रकट होकर, उस विराट मंगलोन्मुखी गति में समन्वित हो जाती है।1
आदिकाव्य रामायण के प्रति आचार्य शुक्ल की भक्ति और श्रद्धा से युक्त बनी मनोदशाओं के कारण को यदि हम खोजें तो-
1. आचार्य शुक्ल आदि काव्य के नायक राम को भगवान का वह स्वरूप मानते हैं, जो समय-समय पर अवतार लेकर दुष्टों का विनाश करता है, वे कहते हैं-‘‘यदि राम द्वारा रावण का वध तथा दमन न हो सकता तो भी राम की गतिविधि का पूरा सौंदर्य रहता, पर उनमें भगवान की पूर्ण कला का दर्शन न होता, क्योंकि भगवान की शक्ति अमोघ है।’’
2. आचार्य शुक्ल की लोकमंगल के लिए किए गए सुकार्यों के प्रति यह अवधारणा है कि-‘‘यदि करुणा किसी व्यक्ति की विशेषता पर अवलंबित होगी कि पीडि़त व्यक्ति हमारा कुटुम्बी, मित्र आदि है तो उस करुणा के द्वारा प्रवर्तित उग्र व तीक्ष्ण भावों में उतनी सुंदरता न होगी। पर बीज रूप में अंतस्संज्ञा में स्थित करुणा यदि इस ढब की होगी कि इतने पुरवासी, इतने देशवासी या इतने मनुष्य पीड़ा पा रहे हैं तो उसके द्वारा प्रवर्तित तीक्ष्ण या उग्र भावों का सौंदर्य उत्तरोत्तर अधिक होगा।’’1
मतलब यह है कि आचार्य शुक्ल को सौंदर्य का उत्तरोत्तर अनुभव ऐसे कार्यों से ही प्राप्त हो सकता है, जिनमें नायक किसी व्यक्ति विशेष पर आए संकट के प्रति करुणाद्र न होकर समूचे लोक पर आए संकट के प्रति करुणाद्र होता है और बचाने के प्रयास करता है। इससे सीधा अर्थ यह निकलता है कि आचार्य शुक्ल की वैचारिक अवधारणाओं की तुष्टि करुणा के उदात्त और मानवीय स्वरूप से होती है। चूंकि करुणा का लोकहितकारी रूप उन्हें आदि काव्य रामायण के नायक राम में दिखलाई देता है, अतः स्वाभाविक रूप से राम के प्रति श्रद्धा और भक्ति उनके मन में उद्बुद्ध हो जाती है।
लेकिन टॉलस्टॉय की कृतियों में जब उन्हें इसी प्रकार के लोककल्याणकारी और मानवीय तत्त्वों के दर्शन होते हैं तो उनके मन में संवेदनात्मक रसात्मकबोध का निर्माण नहीं होता, बल्कि उनके मन में प्रतिवेदनात्मक रस की स्थिति इस प्रकार बनती है-
‘‘टॉलस्टॉय के मनुष्य से मनुष्य में भ्रातृ प्रेम संचार को ही एकमात्र काव्य-तत्त्व कहने का बहुत कुछ कारण सांप्रदायिक था… टॉलस्टॉय के अनुयायी प्रयत्न पक्ष को लेते अवश्य हैं पर केवल पीडि़तों की सेवा सुश्रूषा की दौड़-ध्ूप… आततायियों पर प्रभाव डालने के लिए साधुता के लोकोत्तर प्रदर्शन, त्याग, कष्ट, सहिष्णुता इत्यादि में ही उसका सौंदर्य तलाश करते हैं। साधुता की इस मृदुल गति को वे आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। आध्यात्मिक शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कोई जरूरत नहीं है।’’
मनुष्य जाति के संकट और दुख में करुणाद्र होकर उसे बचाने के प्रयत्न पक्ष में उत्तरोत्तर सौंदर्य का विकास महसूस करने वाले आचार्य शुक्ल आखिर टॉलस्टॉय की मनुष्य से मनुष्य के बीच भ्रातृ-प्रेम की प्रक्रिया [ जिसमें त्याग, कष्ट, सहिष्णुता, पीडि़तों की सेवा-सुश्रूषा आदि के रूप में करुणा के बहुआयामी, सौंदर्यातिरेक से पूर्ण दर्शन होते हैं ] को इतना बेमानी, सारहीन, सांप्रदायिक क्यों ठहरा देते हैं? उनके इस प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध के पीछे ऐसे कौन-से कारण हैं जो टॉलस्टॉय के काव्य में किसी प्रकार का करुणात्मक, रत्यात्मक, हर्षात्मक तत्त्वों के दर्शन नहीं होने देते। उत्तर के लिए हमें शुक्लजी के जीवन-मूल्यों को बारीकी से फिर समझना पड़ेगा।
1. चूंकि आचार्य शुक्ल की सारी-की-सारी वैचारिक अवधारणाएं ईश्वरवादी हैं अर्थात् उनकी रागात्मकता का विषय वह आलौकिक शक्ति है, जो समूचे लोक या मानव जाति की पीड़ाओं, संकटों के प्रति करुणाद्र होकर दुष्टों, अत्याचारियों आदि से रक्षा करता है, अतः शुक्लजी को [ राम को ईश्वरीय अंश या स्वरूप मानने के कारण ] आदि काव्य के नायक राम की समस्त व्यावहारिकता में तो कल्याणकारी, मानवतावादी तत्त्वों के दर्शन हो जाते हैं लेकिन जब यही गुण उन्हें काव्य के स्तर पर लोक के प्राणियों में दृष्टिगोचर होते हैं तो वे [ लौकिक प्राणियों का ईश्वरीय स्वरूप न बन पाने के कारण ] उन गुणों को लोक-कल्याणकारी नहीं मान पाते हैं।
2. चूंकि शुक्लजी अध्यात्म की सारी-की-सारी व्याख्याओं, मान्यताओं, आस्थाओं आदि को ईश्वर और भक्त या आत्म-परमात्मा के मध्य ही लेते हैं, फलतः टॉलस्टॉय के आध्यात्मकवाद को [ जिसमें भ्रातृ-प्रेम का संचार हो ] उनके संस्कार ग्रहण नहीं कर पाते हैं। अतः वे इस भ्रातृ-प्रेम के प्रति प्रतिवेदनात्मक रूप में आक्रोश की अभिव्यक्ति इस प्रकार करते हैं –
‘‘ आध्यात्मिक शब्द की मेरी समझ में काव्य-कला के क्षेत्र में कोई जरूरत नहीं है।’’
ईश्वर-संबंधी सत्ता के लोक-मंगलकारी स्वरूप की स्थापना करने के लिए आचार्य शुक्ल यह कैसी रहस्यमयी बात कह जाते हैं ? जबकि कथित अध्यात्म की स्थापना काव्य या कला के क्षेत्र में ही हुई है। काव्य या कला के क्षेत्र से इतर कहीं भी अध्यात्म जैसे शब्द का कोई अस्त्वि नहीं है।
खैर… हम यहां सिर्फ यह बताना चाहते हैं कि एक सुधी पाठक अपने संस्कारों से बंधकर किस प्रकार संवेदनात्मक या प्रतिवेदनात्मक-रसात्मक अवस्थाएं करता है। यह संस्कारों के रूप में मूल्यबोध का ही परिणाम है कि कृष्ण, राम, लक्ष्मण और ब्राह्मणों के क्रिया-कलापों से रागात्मक संबंध स्थापित करने वाले आचार्य शुक्ल जब-जब यह अनुभव करते हैं कि अमुक काव्य-कृति में उक्त पात्रों के प्रति लेखक ने न्याय बरतते हुए इनके स्वरूप के निखारा है तो वह श्रद्धा-भक्ति से सिक्त हो उठते हैं। लेकिन जब उन्हें यह लगता है कि अमुक काव्य में उक्त पात्रों को गिराने या नीचा दिखाने की कोशिश की गई है तो उन पात्रों एवं लेखक के प्रति उनके रसात्मकबोध की स्थिति एकदम उलट जाती है। जिसका अनुमान उनके वाचिक अनुभावों से इस प्रकार लगाया जा सकता है-
‘‘माइकेल मधुसूदन ने मेघनाद को अपने काव्य का रूप-गुण-संपन्न नायक बनाया, पर लक्ष्मण को वे कुरूप न कर सके। उन्होंने जो उलटपफेर किया, वह कला या काव्यानुभूति की किसी भी प्रकार की प्रेरणा नहीं। बल्कि एक पुरानी धारणा को तोड़ने की बहादुरी दिखाने के लिए। इसी प्रकार बंग भाषा के एक दूसरे कवि नवीनचंद्र के अपने ‘कुरुक्षेत्र’ नामक ग्रंथ में कृष्ण का आदर्श ही बदल दिया। उसमें वे ब्राह्मणों के अत्याचार से पीडि़त जनता के लिए उठ खड़े हुए क्षत्रिय महात्मा के रूप में हैं। अपने समय की किसी खास हवा की झोंक में प्राचीन आर्ष काव्यों में पूर्णतया निर्दिष्ट स्वरूप वाले आदर्श पात्रों को एकदम कोई नया, मनमाना रूप देना भारती के पवित्र मंदिर में व्यर्थ की गड़बड़ मचाना है।’’
माइकेल मधुसूदन एवं बंगकवि नवीनचंद के काव्य का आस्वादन आचार्य शुक्ल को मूल्यों, संस्कारों, वैचारिक निर्णयों के अंतर्विरोधों के कारण क्यों प्रतिवेदनात्मक रसात्मक-अवस्था की ओर ले जाता है, जबकि वह यह भी अनुभव करते हैं कि माइकेल मधुसूदन ने लक्ष्मण को कुरुप नहीं किया है। नवीनचंद ने कृष्ण के माध्यम से पीडि़त जनता का उद्धार करवाया है। कारण स्पष्ट है कि वे लक्ष्मण के आगे मेघनाद के चरित्र को रूप-गुण संपन्न देखना ही नहीं चाहते हैं और नवीनचंद्र की कृति के ब्राह्मणों को वे दयालु, श्रद्धालु, लोकमंगलकारी रूप में ही मानते हैं , इसलिए कृष्ण का क्षत्रिय होकर भी महात्मा रूप में अवतरित होना उन्हें गवारा नहीं होता। परिणामतः वे अपनी बौखलाहट का निशाना सारी-की-सारी काव्य-सामग्री को बना डालते हैं।
बहरहाल इस रसात्मक विवेचन से यह निष्कर्ष तो निकल ही आता है कि किसी पाठक, श्रोता या दर्शक में रसनिष्पत्ति उसके संस्कारों से बंधकर होती है। वह जैसा काव्य के प्रति निर्णय लेता हो, उसकी रसात्मक अवस्था उसी के अनुरुप बन जाती है।
सन्दर्भ-
1.काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था, आचार्य शुक्ल, भा.का.सि., पृष्ठ-26
2. भा. का. सि., पृष्ठ-24
———————————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़

Language: Hindi
Tag: लेख
518 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
तुझे जब फुर्सत मिले तब ही याद करों
तुझे जब फुर्सत मिले तब ही याद करों
Keshav kishor Kumar
दोहा
दोहा
प्रीतम श्रावस्तवी
जिंदगी और जीवन में अंतर हैं
जिंदगी और जीवन में अंतर हैं
Neeraj Agarwal
"डोली बेटी की"
Ekta chitrangini
3239.*पूर्णिका*
3239.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
जिसने अपनी माँ को पूजा
जिसने अपनी माँ को पूजा
Shyamsingh Lodhi (Tejpuriya)
🎋🌧️सावन बिन सब सून ❤️‍🔥
🎋🌧️सावन बिन सब सून ❤️‍🔥
डॉ० रोहित कौशिक
भावुक हुए बहुत दिन हो गए
भावुक हुए बहुत दिन हो गए
Suryakant Dwivedi
दिल के टुकड़े
दिल के टुकड़े
Surinder blackpen
मुझे पतझड़ों की कहानियाँ,
मुझे पतझड़ों की कहानियाँ,
Dr Tabassum Jahan
‼ ** सालते जज़्बात ** ‼
‼ ** सालते जज़्बात ** ‼
Dr Manju Saini
"विडम्बना"
Dr. Kishan tandon kranti
■ सियासत के बूचड़खाने में...।।
■ सियासत के बूचड़खाने में...।।
*Author प्रणय प्रभात*
*मस्ती भीतर की खुशी, मस्ती है अनमोल (कुंडलिया)*
*मस्ती भीतर की खुशी, मस्ती है अनमोल (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
तेरी गली से निकलते हैं तेरा क्या लेते है
तेरी गली से निकलते हैं तेरा क्या लेते है
Ram Krishan Rastogi
“ अपनों में सब मस्त हैं ”
“ अपनों में सब मस्त हैं ”
DrLakshman Jha Parimal
नयन कुंज में स्वप्न का,
नयन कुंज में स्वप्न का,
sushil sarna
तुम से सुबह, तुम से शाम,
तुम से सुबह, तुम से शाम,
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
यादों का झरोखा
यादों का झरोखा
Madhavi Srivastava
ये जो लोग दावे करते हैं न
ये जो लोग दावे करते हैं न
ruby kumari
💐उनकी नज़र से दोस्ती कर ली💐
💐उनकी नज़र से दोस्ती कर ली💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
दस्तूर ए जिंदगी
दस्तूर ए जिंदगी
AMRESH KUMAR VERMA
रात के अंँधेरे का सौंदर्य वही बता सकता है जिसमें बहुत सी रात
रात के अंँधेरे का सौंदर्य वही बता सकता है जिसमें बहुत सी रात
Neerja Sharma
**** मानव जन धरती पर खेल खिलौना ****
**** मानव जन धरती पर खेल खिलौना ****
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
देह धरे का दण्ड यह,
देह धरे का दण्ड यह,
महेश चन्द्र त्रिपाठी
मीठे बोल या मीठा जहर
मीठे बोल या मीठा जहर
विजय कुमार अग्रवाल
सिलसिले..वक्त के भी बदल जाएंगे पहले तुम तो बदलो
सिलसिले..वक्त के भी बदल जाएंगे पहले तुम तो बदलो
पूर्वार्थ
जिनके होंठों पर हमेशा मुस्कान रहे।
जिनके होंठों पर हमेशा मुस्कान रहे।
Phool gufran
मुक्तक
मुक्तक
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
ग़ज़ल
ग़ज़ल
Neelam Sharma
Loading...