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10 Jul 2017 · 2 min read

लघुकथा : ग्रहण

ग्रहण // दिनेश एल० “जैहिंद”

“मम्मी…. ! मम्मी !! मम्मी !!!” विवेक ने बेल न बजाकर बंद दरवाज़े पर खड़े-खड़े दबे स्वर में आवाज़ लगाई । दरवाज़ा खुलते ही विवेक कुछ लड़खड़ाते हुए मुँह पर हाथ रखे अपने बेडरूम की ओर जैसे ही बढ़ा सामने अपने पापा को खड़े पाया ।
“पापा…. आप अभी तक सोए नहीं … !” पापा कोई सवाल करें उसके पहले ही विवेक उलाहना भरे लहजे में कहा — “पापा, आप समय पर सो जाया कीजिए । आप हार्ट के मरीज़ हैं !”
“बेटा, जिसका जवान बेटा रात को दो बजे सैर-सपाटा, मौज-मस्ती और शराब पीकर घर लौटे, उसको भला निंद कब लगती है ।’’ विवेक के पापा ने खिन्नता व अफसोस जताते हुए कहा – “जिस उम्र में बेटे को बाप के कंधे के बोझ को हल्का करना चाहिए, उस उम्र में बेटा आवारागर्दी, शराबखोरी और रतजगा करता फिरता है, फिर बाप भला कब चिंतामुक्त हो सकता है ।’’
‘‘रही बात मेरे मरीज़ होने की …..’’ आगे उन्होंने कहा – “तो मैं… मैं हार्ट का मरीज़ नहीं हूँ, तुम मरीज़ हो, संस्कारहीनता का मरीज़, असंस्कृति का मरीज़, गैरजिम्मेदारी का मरीज !!”
इतना कहते हुए विवेक के पापा तमतमाए हुए अपने बेडरूम में चले गए जहाँ उनकी पत्नी
बिस्तर पर सोने का नाटक कर रही थी ।
विवेक के पापा अनमने-से बिस्तर पर निढाल होकर गिर पड़े और घूमते हुए पंखे के जैसा
उनका दिमाग घूमता रहा – “लग चुका है ग्रहण हमारे समाज को, हमारी सभ्यता व संस्कृति को, पाश्चात्य सभ्यता हमारे संस्कार और संस्कृति को निगल गयी । हमारी नयी पीढ़ी कहाँ……. ?’’

=== मौलिक ====
दिनेश एल० “जैहिंद”
19. 06. 2017

Language: Hindi
416 Views
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