रिश्ताए फुर्र , पैसा ही मौला
रिश्ताए फ़ुर्र, पैसा ही मोला
क्या ग़म करें , जब अपने ही बेगाने हो गये
पैसेके जोश में , अपना होश खो गये |
सोचा न था, तारीख यहाँ तक गिरेगी
बुलंदियों में घूमने वाले , हम ज़मीन को तरसेंगे |
सोचता हूँ, तो हसीं आती है
अपनी बेवकूफियों की याद आती है |
साया भी कभी अपना हुआ !
रौशनी जब सिर पे बुलंद होती है,
साया भाग जाती है, रिश्ते टूट जाते हैं |
दोपहर जब ढल जाती है,
सूरज की रौशनी तिरछी हो जाती है,
साया फिर आती है, और लंबी हो जाती है ;
सारी बुलंदियां , टांय टांय फ़ीस हो जाती है |
मेरी बात पथ्थर की लकीर होती है,
दिन ढले , रात ढले , सुबह ढले या शाम ,
तक़दीर की तस्बीर से जुडी होती है |