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21 Apr 2020 · 1 min read

याद नहीं आता

शायद उनको अब अपना ठिकाना याद नहीं आता
वो तमाम पँछी जिन्हें चहचहाना याद नहीं आता।

किससे उम्मीद-ए-वफ़ा तूने लगा रखी है मेरे दोस्त
जिसे महफ़िल में भी छाती छुपाना याद नहीं आता।

कुछ इतना शदीद मज़ा आता है नफ़रत फैलाने में
अब तो लोगों को अज्र भी कमाना याद नहीं आता।

भुला के तारीख़ी हम ज़मानों से यूँ हीं लड़ते आये है
मगर एक रोज़ भी रंजिश भुलाना याद नहीं आता।

अश्क़ बहाते यतीम सभी जो किस्मत के हैं मारे हुए
दुत्कारना याद आता है उन्हें हँसाना याद नहीं आता।

जॉनी अहमद ‘क़ैस’

2 Likes · 2 Comments · 263 Views
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