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9 Nov 2018 · 1 min read

यमपुरी -एक व्यंग्य

था मानव का हुआ प्रयाण।
अद्भुत है ये यात्रावृतान्त।।
तैरते बादल से पार होकर।
अति दुसह कष्ट सहकर।।
मार्ग का करते अवलोकन।
करते मन में चिन्तन।
मन्थन मनन और स्मरण।
करता मन में विचार ।
है कैसा भोलेश्वर का द्वार।।
यहीं आगे ही सज्जित होगा देवेन्द्र का दरबार ।
दृश्य वहाँ की होगी अति सुन्दर।
जहाँ विराजते राधेमनोहर।।
थोड़ा चिन्तन और विश्राम।
करते ही आया वो परमधाम ।।
विराजे थे जहाँ भोलेश्वर।
भूत -प्रेत अति भयंकर।।
क्षण भर में आभासित हुआ उसे अंधकार ।
साथ ही श्रवित हुआ उसे चीत्कार ।।
थी होने को समाप्त अब उसकी यात्रा।
कारण थी सामने ही यमपुरी।
न्याय की एक ऐसी धुरी।।
अनायास ही खुल गया उसका द्वार।
पाते ही प्रवेश देखा सभा विशेष ।।
सम्मुख ही बैठे थे यमराज ।
थे पहने विचित्र सी ताज।।
बगल में थे उनके चित्रगुप्त ।
कर्मविपाक थी रखी उनके सन्मुख ।।
लिखी थी उसमें कहाँ कब और कौन ।
हो जाएगा पूर्णतः भला कर कैसे मौन।।
यमराज के सम्मुख जब वो आया ।
चित्रगुप्त का दिमाग चकराया।।

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