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13 Aug 2017 · 1 min read

फिर तल्ख़ियों का लुक़्मा निगलना पड़ा मुझे

ग़ज़ल
———-

221 2121 1221 212
मतला

माँ बाप से बिछड़ के सँभलना पड़ा मुझे
इस जिंदगी को ऐसे बदलना पड़ा मुझे
?????????
किस्मत भी रो पड़ी थी मेरी देख कर यही
जब आज़ गर्दिशों में भी पलना पड़ा मुझे
?????????
हमको तलाशे-यार में मंजिल नही मिली
शबो रोज़ फ़ुर्क़तों में ही जलना पड़ा मुझे
?????????
मिलते नहीं जुबां में निवाले शहद भरे
फिर तल्ख़ियों का लुक्मा निगलना पड़ा मुझे
?????????
उस बेवफ़ा के जैसे न पत्थर मैं बन सका
बस मोम की तरह से पिघलना पड़ा मुझे
?????????
छू लेंगे चाँद हम भी तो सोचा था ये मगर
बस दूर से ही देख बहलना पड़ा मुझे
?????????
अपनों ने दिल पे जख़्म दिए हमको इस तरह
कूचे से फिर तो उनके निकलना पड़ा मुझे
?????????
“प्रीतम” जो जल चुकी है हसरतों की लाश जो
माथे पे अपने राख़ को मलना पड़ा मुझे
?????????
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

204 Views
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