फासला भी हुआ है
अदावत हुई फासला भी हुआ है
वफ़ा का अभी सिलसिला चल रहा है
कहें हाल कैसे खुदाया बता दे
मुहब्बत यहाँ कब मुकम्मल हुआ है
उतर जो गया इश्क़ के ही भँवर में
भला फिर उसे भी किनारा मिला है
जमाना जिसे उम्र भर है सताया
वही नाम अपना फलक पर लिखा है
अगर रोकना है मिरी साँस रोको
दिवाना तिरा दर तुम्हारे खड़ा है
अगर हो इजाजत चलूँ यार घर को
मिरी माँ को बस इक मिरा आसरा है
न नफरत किसी से मुहब्बत सभी से
रकीबों सा फिर भी जमाना हुआ है
न देना नसीहत कभी ‘अश्क़’ मुझको
वफ़ा पर मिरी तो ख़ुदा भी झुका है
– ‘अश्क़’