प्रकृति कुछ बोल रही है!
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प्रकृति हर दिन हमसे
कुछ बोल रही है।
ये हवाँओं की सरसराहट,
ये बादलों की गड़गड़ाहट,
नदियों की उफनती जलधाराएं,
विषाक्त होरही जीवनदायी हवायें,
कुछ बोल रही हैं।
बागों में खिले सुन्दर-सुन्दर फूल
हवाओं में समिश्रीत कंक्रीट और धूल,
चाँद से सुशोभित ये चांदनी रात
बीन मौसम बरसते आज की बरसात,
कुछ बोल रही है।
बरसात में नृत्य करते सुन्दर-सुन्दर मोर
समुद्री लहरों का अनियंत्रित सोर,
उनमुक्त विचरती नदियों के अवरुद्ध होते धार
कटन से विक्षुब्ध वृक्षों की चित्कार,
कुछ बोल रही हैं।
रेगिस्तान में उड़ते रेत
बंजर बन रहे खेत,
जाड़े की अधिकता
बसुंधरा की अधीरता,
कुछ बोल रही है।
कहीं बाढ कही सुखा कही भूकम्प का प्रकोप
लोभ वश प्रकृति से खिलवाड़ हर रोज
मिटती वन संपदाएं
विषाक्त हो चूकी नदी तालाब झरनों की जलधाराएं
कुछ बोल रही हैं।
……..
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”