पहाड़ी दर्द
दिल के जज्बातों को आखिर दबाओगे कब तक ।।
छोड़ अपने गांवों को शहर बसाओगे कब तक।।
बहुत बढ़ चली है भीड़ शहरों की गलियों में।
इस भीड़ में खुद को तलाश पाओगे कब तक।।
प्रदूषण की मार से हाल बेहाल है हर शहरी का।
इस प्रदूषण को और झेल पाओगे कब तक ।।
नदी के बेग सी चलती हैं रफ्तार से गाड़ियां।
रफ्तार की रफ्तार खेल पाओगे कब तक।।
बहुत महंगी फीस है शहर के स्कूलों की ।
छोटी सी नौकरी में चुका पाओगे कब तक।।
छोटी रिहायश में रहने को मजबूर जिंदगी।
यों घुट- घुट कर रह पाओगे कब तक ।।
बहुत छोटा दायरा है इंसानियत का यहां।
इस घुटन में आखिर घुट जाओगे कब तक।।
दर्द पलायन का बहुत है पहाड़ियों हमको।
पूछे ” सोबन” फिर गांव वापस आओगे कब तक।।