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11 Sep 2020 · 1 min read

तुम बनाते हो नये रोज बहाने कितने

तुम बनाते हो नये रोज बहाने कितने
और फिर उनसे ही बनते हैं फसाने कितने

मिल नहीं पाते अगर एक भी दिन तुमसे हम
ऐसा लगता है गये बीत ज़माने कितने

एक दिन होगी मुलाकात हमारी उनसे
आस में बीत गए साल न जाने कितने

फँस ही जाते हैं यहाँ भोग विलासों में हम
ज़िन्दगी जाल बिछा डालती दाने कितने

लोग चलते हैं मुहब्बत की डगर पे हँसकर
चाहें सहने पड़े पग पग पे ही ताने कितने

नींद बनना ही हमें होगा तुम्हारी अब तो
हैं अभी ख्वाब हसीं उसमें सजाने कितने

‘अर्चना’ वक़्त यहाँ पर मिला है थोड़ा सा
लक्ष्य जीवन में मगर हमको हैं पाने कितने

11-08-2020
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद

3 Likes · 1 Comment · 259 Views
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