तन्हा
तन्हा
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शोर मचाती हुई तेज रफ़्तार से
आकर टकराती हैं साहिल से
समन्दर की मौजें
बिखरकर लौट जाती हैं खामोशी से…..
अब अपने कदमों के निशाँ नहीं पाता हूं
साहिल पर
बनते थे जो कभी आधे कभी पूरे से……..
आज भी पड़े हैं
हमारे बिखरे हुए मिट्टी के घरोंदे
तुम्हारे हिज़्र के बाद
बिखर चुके हैं हमारे ख़्वाब
न चाहकर भी उन घरोंदों से……..
आज भी शांत समन्दर की बेवफ़ा मौजें
आकर टकराकर साहिल से लौट जाती हैं
टूट जाता है अंदर से साहिल भी
लहरों की खामोशी और
अपनी तन्हाई से…..
झांकता हूं जब भी अपने अंदर
पाता हूं खुद को टूटा हुआ और तन्हा
घिरा हुआ बिना किसी हलचल के
अजीब सी खामोशी से…….
— सुधीर केवलिया