कविता: ??अंजाम पता होता??
मुझपे किया है ओर पर तक़सीर न करना।
दिल लगाना किसी से दमे-शमशीर न करना।।
टूटकर वादे-इरादे ख़ाक हो जाएंगे पल में।
ज़ादा-ए-राहे-वफ़ा में गर्म तासीर न करना।।
जीते मर रहा हूँ तेरी बेवफ़ाई से आजतक।
रुस्वा मुझसा किसी को दिल-पज़ीर न करना।।
तुझसे तो काँटे भले हिफ़ाज़त ग़ुलों की करें।
झूलकर बाँहों में तू गले की ज़ज़ीर न बनना।।
एक बार कहती क़दमों तले ज़ान बिछा देता।
चुप रह बदनाम किसी का ज़मीर न करना।।
आँखों में सजे ख्वाब शीशे-से तोड़ दिए तूने।
इस तरह तडफ़ा किसी को अधीर न करना।।
किसी की हाय लेकर कौन ख़ुश रहा है यहाँ।
एक ज़श्न को तू पत्थर की लकीर न करना।।
पलभर के नशे में जाने ख़ुद को क्यों भूला।
इस तरह भूलने की आदत तासीर न करना।।
एक ग़ुनाह तो माफ़ किया जा सकता है,सुन!
हरबार माफ़ी की ख़्वाहिश हाज़िर न करना।।
इश्क़े अंज़ाम जानते तेरा नाम न लेते”प्रीतम”!
देकर भरोसा प्यार का तू दिले-पीर न करना।।
………..राधेयश्याम बंगालिया”प्रीतम”
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