क्यूं मानवता बेच रहे हों
+++ क्यूं मानवता बेच रहे हो
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मानव होकर क्यूं, मानवता बेच रहे हो
जान पूछ कर, जानें क्या -क्या देख रहे हो
कहां सो गई बोलो तो संवेदनाएं तुम्हारी
मानवता की आंह!पर, हाथ तुम सेक रहे हो
क्या तुम में और जानवरों में ,कोई नहीं हैअंतर
जो तुम नफरत वाले ,मंत्र यूं फूंक रहे हो
डरा- डरा सा तुमने, सब कुछ कर डाला है
रिश्तो को भी ,तुम दुश्मन सा देख रहे हो
इतना भी भटकाव ,नहीं अच्छा है यारा
मानव होकर, जो मानवता लूट रहे हो
ईश्वर की सबसे सुन्दर, तुम ही हो आकृति
फिर क्यों “सागर” सच से इतना भाग रहे हो ।।
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मूल रचनाकार ..बेखौफ शायर
डॉ.नरेश कुमार “सागर”
प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत रचना रचनाकार की मूल व ए प्रकाशित रचना है ,जो केवल आपको ही भेजी गई है।