Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
3 Mar 2017 · 6 min read

काव्य की आत्मा और औचित्य +रमेशराज

डॉ. नगेन्द्र अपनी पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में लिखते हैं कि काव्य के विषय में और चाहे कोई सिद्धान्त निश्चित न हो, परन्तु उसकी रागात्मकता असंदिग्ध है।… कविता मानव मन का शेषसृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है।’’
डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी का मानना है कि कविगत और सहृदयगत रस को लें-इस रस पर तात्त्विक रूप में तो हृदय की वह आद्रता और रागात्मकता है जिससे भावों का जन्म होता है।’[1]… जहां कोई चित्रावृत्ति कवि हृदय की गहन रागात्मकता से जन्म लेती है, वहां उसका ध्वन्यात्मक रूप ग्रहण कर लेना स्वाभाविक है।[2] वस्तुतः रस कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है वह किसी विशेषयुग के जनमानस की नैतिक और रागात्मक धारणाओं से निर्मित होता है। उन धारणाओं पर आधारित कथा में रस सिद्ध हुआ रहता है। यही सिद्ध रस का अर्थ है।[3] ऐतिहासिक कथानक और पात्रों पर बल देने का एक कारण तो यही है कि वे भारतीय मानस की नैतिक वृत्ति को संतोष देने में समर्थ हैं, दूसरे यह कि युगों से अपना अस्तित्व प्राप्त करते रहने के कारण वे भारतीय जनमानस की रागात्मकता में जम गये हैं। अतः स्वभाव से ही रसावह हैं। युंग जैसे मनौवैज्ञानिक ने भी पौराणिक पात्रों के रागात्मक प्रभाव को मुक्तकंठ से स्वीकार किया।[4]
आचार्य आनंदवर्धन कहते हैं कि ‘‘कोई ऐसी वस्तु नहीं जो रस का अंग भाव प्राप्त नहीं करती?’’ उनके अनुसार-‘‘रसादि चित्तवृत्तियां विशेष ही हैं और कोई ऐसी चित्तवृत्ति वस्तु नहीं जो चित्तवृत्तियों को उत्पन्न किये बगैर काव्य का विषय बन जाये। अतः कोई ऐसा काव्य प्रकार भी सम्भव नहीं जिसमें रस किसी न किसी रूप में विद्यमान न हो।[5] इसके लिये कवि का रागी होना आवश्यक है क्योंकि वह रागी हुए बिना किसी भी चित्तवृत्ति को उत्पन्न करने वाली वस्तु की चयन नहीं कर सकता। [6]
डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि-‘‘ रागात्मक सम्बन्धों के बिना रागात्मक वृत्तियों की कल्पना निराधार है….मनुष्य के अन्तर्राष्ट्रीय और अन्तवैश्विक सारे सम्बन्ध रागात्मक सम्बन्धों की कोटि में आते हैं और रागात्मक वृत्तियों के समान ही ये रागात्मक सम्बन्ध भी काव्य के अंन्तरंग हैं।[7] रागात्मक समृद्धि वहां है जहां वास्तविक स्थितियों से गुजरते हुए जागरूक मानव मन की अधिक से अधिक जीवंतता मूर्तिमान हुई है और जहां जीवन की वास्तविकता को देखने के लिये कोई ‘विजन’ मिलता है।[8]
विभिन्न विद्वानों द्वारा रागात्मकता के बारे में दिये गये उक्त बयानों से स्पष्ट है कि-
1. काव्य में रागात्मकता की स्थिति असंदिग्ध ही नहीं बल्कि इसी रागात्मकता से रस, ध्वनि, चित्तवृत्तता आदि का जन्म होता है।
2. जो मूल्य या निर्णय संस्कार रूप में रागात्मकता में रच-बस जाते हैं, वे स्वभाव से ही रसमय हो जाते हैं।
3. रागात्मकता ही वह मूलभूत प्राणतत्त्व है जिसके द्वारा मानव मन शेष सृष्टि के साथ मधुरिम और रसात्मक सम्बन्ध बनाता है। मानव मन की जीवंतता को मूर्तिमान करने में या जीवन की वास्तविकता को देखने-परखने या समझने के संदर्भ में रागात्मकता जैसे अनिवार्य तत्त्व की असंदिग्ध भूमिका को समझना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है। इस दृष्टि को प्राप्त करने के लिये कवि का सहृदय और रागी होना जरूरी है।
अतः यह कहना अनुचित न होगा कि राष्ट्रीय, सांस्कृतिक या मानवीय जीवन की दिव्य समृद्धि, रागात्मक समृद्धि के बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। लेकिन इसके लिये रागात्मकता का सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होना आवश्यक है | अगर रागात्मकता सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होगी तो आचार्य शुक्ल शब्दों में-‘‘भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता और प्रचण्डता में भी गहरी आद्रता के काव्य में दर्शन होंगे। यही नहीं काव्य से धर्म और मंगल की ज्योति अमंगल और अधर्म की घटा को फाड़ती हुई निकलेगी।’’
इसलिये आनंदवर्धन अगर सम्पूर्ण रस-व्यवस्था का मेरूदंड औचित्य को मानते हैं तो कोई अटपटी बात नहीं कहते। ‘औचित्य विचार चर्चा’ के रचयिता आचार्य क्षेमेंद्र भी अभिव्यक्ति को तभी सरस मानते हैं जबकि काव्य द्वारा सम्प्रेषित अनुभूति जाति और युग के सांस्कृतिक आदर्शों, नैतिक मान्यताओं एवं मूल्यों से अनुशासित हो।’’
दरअसल आनंदवर्धन और आचार्य क्षेमन्द्र औचित्य के माध्यम से रागात्मकता को सत्योन्मुखी चेतना से युक्त बनाने पर ही बल देते हैं। अगर रागात्मकता सत्तत्त्वमय होगी तो उसका रसात्मकबोध सामाजिकों को लोकमंगल और लोकरक्षा के संस्कारों के लिये अभिप्रेरित करेगा। अतः कवि का रागी होना तो आवश्यक है परन्तु उसकी रागात्मकता यदि सत् तत्वमय नहीं है तो कवि के द्वारा निर्मित काव्यसंसार जीवन की वास्तविक स्थितियों को उजागर करने में असमर्थ ही नहीं हो जायेगा, उससे व्यक्तिवादी, रूढि़वादी लिजलिजे वाह्य सौन्दर्य की ध्वन्यात्मकता मुखर होगी। इस तरह की रागात्मकता हर प्रकार से मानवीय जीवन की रागात्मकता को ही विखंडित करेगी। रहीम ने सही कहा है कि-
कहि रहीम कैसे निभै बेर केर कौ संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।
डॉ. नगेद्र के अनुसार-‘‘माना राग की परिधि में अनूकल-प्रतिकूल, स्व-पर, सत्-असत् सुन्दर-कुरुप, मधुर-कटु और विराट-कोमल सभी के लिये अवकाश रहता है।[9] लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि व्यक्तिवादी रागात्मक संस्कार शेषसृष्टि के साथ मानवीय रागात्मक सम्बन्धों को आघात ही पहुंचायेंगे। रागात्मक सम्बन्धों की सार्थकता बिना किसी औचित्य के अगर तय की जायेगी तो रागात्मकता के नाम पर अनुकूल के लिये प्रतिकूल, सत के लिये असत्, सुन्दर के लिये कुरुप, मधुर के लिये कटु, ठीक उसी प्रकार घातक सिद्ध होगा जैसे केर के लिये बेर।
साहित्य में आयी इस घातक स्थिति को ‘व्यापक अनुभूति का एक प्रमाण मानकर डॉ. नगेन्द्र यह कहते हैं- ‘‘साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी जो अब तक चली आयी है, वही ठीक है अर्थात् आनंद साहित्य की सृजनक्रिया स्वयं साहित्यकार को आनंद देती है। और उसके व्यक्त रूप का ग्रहण पाठक या श्रोता को आनंद देता है। हमें जो साहित्य जितना ही गहरा और स्थायी आनंद दे सकेगा, उतना ही वह महान होगा, चाहे उसमें किसी सिद्धान्त का साम्यवाद, गांधीवाद, मानववाद, पूंजीवाद, किसी भी वाद का समर्थन हो या विरोध।“
डॉ. नामवर सिंह का कथन ऐसी अधकचरी मान्यताओं के प्रति बड़ा मार्मिक महसूस होता है कि-‘‘जो केवल अनुभूति क्षमता के मिथ्याभिमान के बल पर नयी कविता को समझ लेने तथा समझकर मूल्यनिर्णय का दावा करते हैं, व्यवहार में उनकी अनुभूति की सीमा प्रकट होने के साथ-साथ ही यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि काव्य समीक्षा में हवाई ढंग से सामान्य अनुभूतियों का सहारा लेना भ्रामक है।’’
डॉ. नगेन्द्र की सत् और असत् में अंतर न कर पाने वाली इसी रागात्मक दृष्टि पर खीजकर अगर डॉ. रामविलास शर्मा यह कहते हैं कि- डॉ. नगेन्द्र की अनुभूति सन्-36 के छायावाद की है, उनके विचार सन्-26 के अधकचरे फ्रायड-भक्तों के हैं ’’, तो सही समय पर एक बेहद सही बात को ही नहीं उद्घाटित करते बल्कि रागात्मक समृद्धि के नाम पर फैलाये गये ‘रागात्मक विपन्नता’ के रहस्य का भी पर्दाफाश करते हैं।
माना रागात्मकता काव्य के आत्मरूप में प्रतिष्ठित वह प्राणतत्व है जिसके द्वारा काव्य रसात्मक हो उठता है, लेकिन इस रस को मिठास, माधुर्य, गहरी आद्रता, अद्भुत मनोहरता, विराटता उद्दात्तता, सौम्यता तो औचित्य से ही प्राप्त होती है। आनंदवर्धन ‘रस भंग’ का कारण कोई और नहीं अनौचित्य को ही मानते हैं । रागात्मकता को उचित वाक्य रचना, अलंकार, वक्रोक्ति, छंदादि जहां प्रगाढ़ता प्रदान करते हैं वहीं उसे औचित्यपूर्ण विचारधाराएं सत्योन्मुखी चेतना से युक्त करती हैं। रागात्मकता का यह सत्योन्मुखी स्वरूप जब काव्य की आत्मा में प्रतिष्ठित होता है तो सुन्दरता के लिये असुन्दरता के आवरणों को हटाता है। पूंजीवाद के खिलाफ मार्क्सवाद बन जाता है, व्यक्तिवादिता के बीच समाजवाद को फैलाता है, गांधी और भगतसिंह की विचारधराओं में अंतर करना सिखलाता है। शोषित को शोषित से, अबला को बलात्कारी-अत्याचारी-व्यभिचारी की विकृत रागात्मकता से मुक्ति दिलाता है। सच्चे प्रेम की स्थापना के लिये वह खाला के व्यावसायी, स्वार्थी, घिनौने चरित्र का विरोध करता है-
‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।’
सत्योन्मुखी रागात्मकता से घनीभूत काव्य का आनंद वास्तविक शिवतत्व और सुन्दरता से आप्लावित होता है। जबकि पूंजीवादी शोषक, अत्याचारी, व्यभिचारी, भोगविलासी विचारधाराओं का पोषण करने वाली अपसंस्कृति का रागरूप अंधेरे की ऐसी सत्ता का पोषक होता है जो समूची मानवता को निगल जाता है। ऐसी रागात्मकता की उपलब्धि भी निश्चित आनंददायी होती है लेकिन यह आनंद ठीक इस प्रकार होता है-
‘कान्हा बनकर जायेंगे फिर पहुंचायेंगे कोठों तक
जाने कितनी राधाओं को इसी तरह वे छल देंगे।’
अतः पाश्चात्य विद्वान होरेस का ‘औचित्य सिद्धान्त’ भले ही उपदेशमूलक हो, लेकिन इसकी सार्थकता और सच्ची आनंदोपलब्धि असंदिग्ध है। होरेस का कहना है कि-‘‘कवि शिव और सुन्दर की प्रतिभा रखता है, वह पाठक को मुग्ध भी कर सकता है और शिक्षा भी दे सकता है। जिसका मस्तिष्क लोलुपता या दृव्य लिप्सा से आक्रान्त या दूषित हो चुका है वह अच्छी कविता नहीं लिख सकता। कविता की जागरूक विवेक शक्ति ही श्रेष्ठ काव्य के सृजन को अनुप्राणित करती है, विवेक शक्ति के बिना चिन्तन सम्भव नहीं। और चिन्तन की प्रखरता औचित्य की पृष्ठभूमि पर ही सम्भव है।’’[10]
सार यह है कि कोरी तुकबन्दी, या कोरा शब्दाडम्बर जिस प्रकार कविता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मरूप में औचित्यपूर्ण सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना के समाहित किये बिना सच्ची और वास्तविक कविता प्राप्त नहीं की जा सकती।
सन्दर्भ-
1., 2., 3., व 4. –रस सिद्धांत, पृष्ठ-80-81 व 199
5.- कविता के नये प्रतिमान
6. व 7.-ध्वन्यालोक, पृष्ठ-५२६-२७, ५३०
8.-कविता के नये प्रतिमान, पृष्ठ-62
9.- आस्था के चरण , पृष्ठ-184
10.- Horace-on the art of poetry-58
————————————————————–
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
973 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
दिल के इक कोने में तुम्हारी यादों को महफूज रक्खा है।
दिल के इक कोने में तुम्हारी यादों को महफूज रक्खा है।
शिव प्रताप लोधी
माँ को फिक्र बेटे की,
माँ को फिक्र बेटे की,
Harminder Kaur
Dr Arun Kumar shastri
Dr Arun Kumar shastri
DR ARUN KUMAR SHASTRI
5 किलो मुफ्त के राशन का थैला हाथ में लेकर खुद को विश्वगुरु क
5 किलो मुफ्त के राशन का थैला हाथ में लेकर खुद को विश्वगुरु क
शेखर सिंह
वर्णमाला
वर्णमाला
Abhijeet kumar mandal (saifganj)
विश्व पर्यटन दिवस
विश्व पर्यटन दिवस
Neeraj Agarwal
जिन्दगी में कभी रूकावटों को इतनी भी गुस्ताख़ी न करने देना कि
जिन्दगी में कभी रूकावटों को इतनी भी गुस्ताख़ी न करने देना कि
Sukoon
जिंदगी के लिए वो क़िरदार हैं हम,
जिंदगी के लिए वो क़िरदार हैं हम,
Ashish shukla
जीवन तब विराम
जीवन तब विराम
Dr fauzia Naseem shad
जिंदगी सभी के लिए एक खुली रंगीन किताब है
जिंदगी सभी के लिए एक खुली रंगीन किताब है
Rituraj shivem verma
तू मेरी हीर बन गई होती - संदीप ठाकुर
तू मेरी हीर बन गई होती - संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur
ख्याल नहीं थे उम्दा हमारे, इसलिए हालत ऐसी हुई
ख्याल नहीं थे उम्दा हमारे, इसलिए हालत ऐसी हुई
gurudeenverma198
💐अज्ञात के प्रति-67💐
💐अज्ञात के प्रति-67💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
सिकन्दर बनकर क्या करना
सिकन्दर बनकर क्या करना
Satish Srijan
दुसेरें को इज्जत देना हार मानव का कर्तंव्य है।  ...‌राठौड श्
दुसेरें को इज्जत देना हार मानव का कर्तंव्य है। ...‌राठौड श्
राठौड़ श्रावण लेखक, प्रध्यापक
इमारत बड़ी थी वो
इमारत बड़ी थी वो
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
खुला आसमान
खुला आसमान
विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
इल्तिजा
इल्तिजा
Bodhisatva kastooriya
बाबा फरीद ! तेरे शहर में हम जबसे आए,
बाबा फरीद ! तेरे शहर में हम जबसे आए,
ओनिका सेतिया 'अनु '
*आ गई है  खबर  बिछड़े यार की*
*आ गई है खबर बिछड़े यार की*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
तेरी मधुर यादें
तेरी मधुर यादें
Dr. Ramesh Kumar Nirmesh
* फागुन की मस्ती *
* फागुन की मस्ती *
surenderpal vaidya
बालको से पग पग पर अपराध होते ही रहते हैं।उन्हें केवल माता के
बालको से पग पग पर अपराध होते ही रहते हैं।उन्हें केवल माता के
Shashi kala vyas
#क़तआ (मुक्तक)
#क़तआ (मुक्तक)
*Author प्रणय प्रभात*
चार कंधों पर मैं जब, वे जान जा रहा था
चार कंधों पर मैं जब, वे जान जा रहा था
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
नाम में सिंह लगाने से कोई आदमी सिंह नहीं बन सकता बल्कि उसका
नाम में सिंह लगाने से कोई आदमी सिंह नहीं बन सकता बल्कि उसका
Dr. Man Mohan Krishna
*अज्ञानी की कलम शूल_पर_गीत
*अज्ञानी की कलम शूल_पर_गीत
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी
*प्यार का रिश्ता*
*प्यार का रिश्ता*
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
होली (होली गीत)
होली (होली गीत)
ईश्वर दयाल गोस्वामी
*वरमाला वधु हाथ में, मन में अति उल्लास (कुंडलियां)*
*वरमाला वधु हाथ में, मन में अति उल्लास (कुंडलियां)*
Ravi Prakash
Loading...