करो तो कुछ ऐसा की बेटियों से तुम पहचाने जाओ यार…
न कहो अब छुईमुई सी होती है बेटियाँ…
न समझो अब की कमज़ोर होती है बेटियाँ…
न आँको की कमतर बेटों से होती है बेटियाँ…
न रोको उन्हें की अबला होती है बेटियाँ…
न टोकों उन्हें की नासमझ होती है बेटियाँ…
न तजों उन्हें की घर न चला पाती है बेटियाँ…
न गिराओ उन्हें की कमा न सकती है नाम बेटियाँ…
उन्हें न कमतर आँको न कमज़ोर मानो यार…
उन्हें न अबला समझो न नादां समझो यार…
कोख़ की पीड़ा को समझो उनको उजाले में आने तो दो यार…
माटी की महक सी अंगना में मुस्काने तो दो यार…
होती नहीं कम कभी बेटों से ये बेटियाँ…
सानिया-साइना सुनीता-कल्पना…
इंदिरा-टेरेसा नूयी-बेदी कितने नाम सुनाऊ यार…
न तजों उन्हें न गिराओ यार…
करो तो कुछ ऐसा की बेटियों से तुम पहचाने जाओ यार…
✍कुछ पंक्तियाँ मेरी कलम से : अरविन्द दाँगी “विकल”