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24 Dec 2016 · 1 min read

आदमी सा लगा….।

आदमी सा लगा…….।।

बड़ा अजीब मंजर था जानाजे का उसके.।
वहां मौजूद हर सख्श बुझा बुझा सा लगा.।

न पूछ उसके मरने का सबब मुझसे.।
जिंदा रहकर भी वो मुर्दा सा लगा.।

कशमकश से भरी थी उसकी खाली जिंदगी.।
हर वक्त वो कुछ उलझा उलझा सा लगा.।

इस क़दर अजनबी था वो अपने ही घर मे.।
भीड़ मे भी कोई उसे ना अपना सा लगा..।

जाने किस आग मे जला रहा था खुद को .।
जब तक रहा धुआँ धुआँ सा लगा.।

तमन्नाएं दम तोड़ चुकीं थी सभी शायद ।
जिंदगी से हर पल वो खफा खफा सा लगा.।

मुड़कर जो देखा उसने खुद के पीछे कभी.।
कुछ भी उसे ना उसका हासिल सा लगा.।

क्यों किसी के लिए जिंदा रखता वो खुद को.।
उसे तो उसका शहर उसे भूलता सा लगा.।

वो दूनीया को चाहे भी जैसा लगा.।
मुझको तो वो बस “आदमी सा लगा”.।

जाने आ गया था किस बस्ती मे “सुदामा”।
हर सख्श यहाँ परेशां और शर्मिंदा सा लगा.।

विनोद सिन्हा-“सुदामा”

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