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10 Apr 2019 · 1 min read

अब तो मिलने से भी घबरा रहा हूँ

हूँ मैं काला तिल उनकी गालों का, उनकी ज़ीनत का मैं पहरा रहा हूँ।
लोग बढ़ते रहे आगे मुझसे, मैं वही का वहीं ठहरा रहा हूँ।
खायीं हैं ठोकरें हज़ारों लोगो की, फिर भी पहाड़ सा वहीं अड़ा रहा हूँ।
आह निकली नहीं कभी दिल से, मैं समुन्दर सा गहरा रहा हूँ।
जश्न मनाते होंगे जीत का वो अपनी, मैं उनसे हार कर भी इतरा रहा हूँ।
कुछ इस कदर देखी हैं खामोशियाँ मैंने, कान होते हुए भी बहरा रहा हूँ।
कभी बीते थे उनके साथ हर लम्हें, अब तो मिलने से भी घबरा रहा हूँ।

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