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5 Jun 2019 · 1 min read

अनजानों से पहचान बना रही हूं मैं –

यूं ही नहीं जाता है कोई अनजानों के पास,
छोड़ कर अपनों का फैलाआंगन,
बनाने लग जाता है अपने हिस्से का सिर्फ एक अंगुल भर खुला आसमान।
वो आसमान जिसमें अपनापन लादा नहीं जाता,
खुद बखुद समर्पण से आता है।
आज के रिश्तों में सिर्फ़ बेवजह का तनाव ,
दर्द और छींटा कसी के साथ सिर्फ नफरत और होड़ का मैदान।
लेना चाहता है सब कुछ रिश्तों की परिभाषा बताकर,
भूल बैठा सब कुछ गरूर की एनक लगाकर।
रिश्तों में पनपने लगा है दिखावे का बीज,
विलुप्त होने लगा समर्पण, वात्सल्य और लगाव।
कहां से पाओगे बड़ों से प्यार का सावन,
जब पकड़ कर रखोगे अविश्वास का दामन।
छोड़ ही जाता है रिश्तों का आंगन,
बनाने लग जाता है अपरिचितों में अपनी पहचान।
यहां कोई अपेक्षा नहीं होती ,न ही भय सताता झूठे दिखावे का।
न तो लेना ,नहीं देना सब कुछ बिना उम्मीद के ही होता जाता है।
इसलिए आज मन दर्द भरे रिश्तों के मोह पाश से मुक्त होना चाहता है।
छोड़कर इन खून के रिश्तों को सिर्फ़ दोस्ती में बंध जाना चाहता है
रेखा उन्मुक्त हो उडें गगन में,फिर से बनाएं एक नयी पहचान।

Language: Hindi
1 Like · 268 Views
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